गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

Himachal Elections: Beyond the Politics


                                        '‘सरकार की नहीं सरोकार की चिंता’’
एस0 राजेन टोडरिया
हिमाचल के लोग लोकतंत्र को रोटी की तरह सेंकने के कायल रहे हैं। जिन लोगों को रोटी सेंकने का अनुभव है वे जानते हैं कि तवे पर रोटी को उलटने पलटने से रोटियां जलती नहीं हैं। हर पांच साल में तवे पर रखी रोटी की तरह सरकार को भी उलट देना ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जिससे आप अहंकारी और लापरवाह शासकों को सबक सिखाते हैं। पांच साल बाद सरकार बदलने का लाभ यह है कि हर नेता जानता है कि वह जनता के लिए एकमात्र विकल्प नहीं है। यह राजनीतिक कवायद नेताओं और राजनीतिक दलों को स्वेच्छाचारी होने से रोकती है। राजनीति के मदमस्त हाथियों को वश में करने के लिए यह एक अच्छी लगाम है। 
‘सरकार की नहीं सरोकार की चिंता’’ हिमाचल में चुनाव नतीजे आने को हैं। चुनावी परिदृश्य पर मेरा यह लेख दैनिक हिमाचल दस्तक ने प्रकाशित किया है।




राजधानी शिमला में रातें लंबी, ठंडी हैं और राजनीति सहमी हुई सी है। वातावरण में एक रहस्यमय खामोशी है। कोई नहीं जानता कि हवा का रुख किधर होगा। राजनीति के पंडित भी भविष्यवाणी करने से कतरा रहे हैं। सारा रहस्य उस बेजान ईवीएम के पेट में छिपा है जो पुलिस के पहरे में है। चुनाव के नतीजों पर लिपटे इस कुहासे के बावजूद हर बार की तरह इंडियन काफी हाउस में सरकारें बन और बिगड़ रही होंगीं। हिमाचल विधानसभा चुनाव की खासियत रही है कि वहां मतदाता सत्ता का प्रसाद कांग्रेस और भाजपा के बीच बराबर-बराबर बांटने में यकीन रखते रहे हैं। लेकिन इस बार यह इतना स्पष्ट नहीं है। भाजपा की राज्य सरकार के खिलाफ जो सत्ता विरोधी रूझान था उसके जवाब में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने गैस सिलेंडर की सब्सिडी खत्म करने का जिन्न बाहर निकाल दिया। कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण को यदि बहुत मामूली ही तौर पर भी तीसरे मोर्चे ने प्रभावित किया होगा तब भी यह सेंधमारी आधा दर्जन सीटों पर चुनावी नतीजें उलट पुलट कर सकती है। कोहरा ज्यादा  घना है और ऐसे में बाजी किसी के भी हक में जा सकती है। अनिश्चितता के बावजूद चिंता इस बात की नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी बल्कि मूल चिंता यह है कि जो सरकार बनने जा रही है उसके सरोकार क्या होंगे?
 मतदान व्यवहार के नजरिये से हिमाचल एक रोचक राज्य है। हिमाचल में एक बड़ा मध्यवर्ग है और हर साल इसका आकार बढ़      रहा है। राजनीतिक रुप से देखें तो मध्यवर्ग चुनावी उलटफेर में उस्ताद होता है। आर्थिक रुप से संवेदनशील होने के कारण उसकी बेचैनियां इतनी ज्यादा होती हैं कि हर सरकार के हर बार सत्ता विरोधी रूझान के काफिले की अगुआई यही वर्ग करता है। हिमाचल में सत्ता परिवर्तन की जो राजनीतिक रस्म चली है वह मध्यवर्ग के उदय के बाद उसके असंतोषी स्वभाव के कारण ही है। जिन हिस्सों में मध्यवर्ग की आर्थिकी जितनी अस्थिर है वहां राजनीति भी उतनी ही परिवर्तनशील है। छोटे चुनाव क्षेत्र होने से हल्का सा सत्ता विरोधी रूझान भी चुनाव नतीजे बदल डालता है। हिमाचल में 15 से लेकर 22 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं जो हर बार विधायक बदल देने पर यकीन रखते हैं। इन सीटों के कारण हर पांच साल में सरकार बदल जाती है। इस बार चुनाव नतीजों को लेकर जो अनिश्चतता है उसे इस मायने में अभूतपूर्व कहा जा सकता है कि भाजपा सरकार के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी रूझान होते हुए भी कांग्रेस की जीत साफ-साफ हरफों में लिखी नहीं दिखाई दे रही है।हिमाचल की चुनावी इबारत को इतना धुंधला बनाने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी श्रेय के हकदार हैं।  उन्होने ऐन चुनाव के मौके पर एक निर्जीव और उपेक्षित गैस के सिलेंडर से कांग्रेस के लिए एक महाबली भस्मासुर तैयार करके साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री के तरकश में कांग्रेस को हैरान करने के लिए तीरों की कमी नहीं है। भाजपा के सत्ता विरोधी रूझान को संतुलित करने में गैस सब्सिडी खत्म करने के केंद्र के ऐलान का बहुत बड़ा योगदान रहा है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अकेला गैस सिलेंडर भाजपा के पांच साल के कारनामों के दाग धोने में कामयाब रहा है? चुनावी अनिश्चितता के इस समीकरण को तीसरे मोर्चे ने भी कुछ और जटिल बनाया है। हालांकि तीसरे मोर्चे का शोर शराबा भले ही बहुत रहा हो लेकिन उसकी चुनौती आधा दर्जन सीटों पर सिमटती नजर आ रही है। इसके बावजूद उसकी सेंधमारी से कांग्रेस और भाजपा दोनों को नुकसान होगा। 
हिमाचल के लोग लोकतंत्र को रोटी की तरह सेंकने के कायल रहे हैं। जिन लोगों को रोटी सेंकने का अनुभव है वे जानते हैं कि तवे पर रोटी को उलटने पलटने से रोटियां जलती नहीं हैं। हर पांच साल में तवे पर रखी रोटी की तरह सरकार को भी उलट देना ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जिससे आप अहंकारी और लापरवाह शासकों को सबक सिखाते हैं। पांच साल बाद सरकार बदलने का लाभ यह है कि हर नेता जानता है कि वह जनता के लिए एकमात्र विकल्प नहीं है। यह राजनीतिक कवायद नेताओं और राजनीतिक दलों को स्वेच्छाचारी होने से रोकती है। राजनीति के मदमस्त हाथियों को वश में करने के लिए यह एक अच्छी लगाम है। लेकिन सरकारों को उलटते-पलटते रहने की इन विशेषताओं के बावजूद पिछले पंद्रह साल से जिस तरह लोग कांग्रेस और भाजपा की सरकारें बदलते रहे हैं उसके कोई बहुूत अच्छे नतीजे नहीं आये हैं। लेकिन सरकारें बदलने के इस चुनावी खेल से गवर्नेंस की गुणवत्ता बेहतर नहीं हुई है। उल्टे उसकी क्वालिटी में गिरावट आई है। गवर्नेंस में गिरावट आने का सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है। सन् 2003 में भ्रष्टाचार के सवाल पर भाजपा सरकार को लोगों ने विदा कर दिया। सन् 2008 में इसी मुद्दे पर कांग्रेस सरकार बदल दी गई और सन् 2012 में भी भ्रष्टाचार ही भाजपा सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा बना रहा। यानी तीन चुनावों में जनादेश भ्रष्टाचार के खिलाफ था पर बावजूद हर आने वाली सरकार पिछली सरकार के भ्रष्टाचार को पीछे छोड़ने पर आमादा दिखी। जाहिर है कि चुनाव में हार जाने के डर से नेताओं ने भ्रष्टाचार करना नहीं छोड़ा उल्टे उन्होने मान लिया कि पांच साल तक भ्रष्टाचार करो और फिर पांच साल विपक्ष में बैठो। यह अद्भुत है कि जनता 15 साल से भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट देती रहे और भ्रष्टाचार विरोधी जनादेश पर सवार सरकार भ्रष्टाचार को और भी बढ़ा दे। हिमाचल में भ्रष्टाचार बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि राज्य के मामलों में कांग्रेस और भाजपा के आलाकमानों का दखल बढ़ा है। हिमाचल के बड़े कद के नेताओं को पृष्ठभूमि में खिसका कर खत्म करने की रणनीति दरअसल कांग्रेस और भाजपा के आलाकमान का ही राजनीतिक गणित है। यह दुर्भाग्य है कि आलाकमानों को राज्य में कमजोर नेता ही रास आ रहे हैं। हाल के सालों में आलाकमानों द्वारा राज्यों के प्रोजेक्टों से सीधे कमीशन वसूल करने प्रचलन बढ़ा है। इससे भ्रष्टाचार बढ़ा है और नेताओं की जवाबदेही राज्य की जनता के बजाय दिल्ली में बैठे पार्टी के नेताओं के प्रति बढ़ी है।
कौन सी सरकार बनेगी, यह इसलिए मायने नहीं रखता कि अब इन दोनों दलों के बीच सिर्फ झंडे के रंग का अंतर है। मूुल सवाल है कि क्या आने वाली सरकार उन समस्याओं को एड्रेस करेगी जिनसे हिमाचल की जनता दो चार है। 



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