रविवार, 1 अप्रैल 2012

Mythaan Police Atrocities: It is unnecessary interference in Religion





                         माईथान के पुलिस दमन के बहाने

एस0राजेन टोडरिया

 कर्णप्रयाग ब्लाॅक के माईथान में पशुबलि को लेकर प्रशासन की हठधर्मिता और जनविरोधी रवैये से ग्रामीणों और राजस्व विभाग के अफसरों में टकराव हो गया। पूरे माहौल को शांतिपूर्ण और समझदारी से निपटाने के बजाय प्रशासन ने मूर्खतापूर्ण और दमनकारी तरीके से तरीके से गांव वालों पर लाठीचार्ज कर दिया। अब प्रशासन का दमनचक्र ग्रामीणों पर टूट पड़ा है। कुछ लोगों के खिलाफ नामजद और 300 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं। यह आचर्यजनक है कि सरकार ने इस कांड के लिए जिम्मेदार एसडीएम और तहसीलदार का निलंबन करने के बजाय ग्रामीणों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। यह पहाड़ के लोगों के साथ ज्यादती है। जबकि ग्रामीणों की सहमति के बिना पुलिस बल के आतंक के बल पर पशुबलि रोकना उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप है।
उत्तराखंड में पशुबलि  की लंबी और ऐतिहासिक परंपरा रही है। यह सदियों से चली आ रही हैं। यह दरअसल खेती और पशुचारक समाजों खासतौर पर खस और आर्यों परंपराओं से आई प्रथा है। इसके पीछे खेतिहर समाजों का पशुपालन का विज्ञान काम करता रहा है। नर भैंसे और नर बकरे की बलि दरअसल पशुओं के झुंड में नरों की आबादी को नियंत्रित रखने का विज्ञान है। पशुओं के झुंड में नरों की तादाद एक सीमा से ज्यादा होने के कारण उनकी सामाजिक व्यवस्था गड़बड़ा जाती है और मादाओं को लेकर नर     पशुओं में आपसी टकराव बढ़ता है जिससे उनकी सामाजिक व्यवस्था में समस्यायें पैदा हो जाती हैं।इसके अलावा इसका आर्थिक पक्ष भी रहा है। नर भैंसे और नर बकरे का कृषि में भी कोई योगदान नहीं है और वे आर्थिक रुप से भी अनुपयोगी होते हैं जबकि बैल खेत जोतने के काम आते थे इसलिए बैलों की बलि देने का रिवाज पहीं रहा। खेतिहर और पशुचारक समाजों में सिर्फ नर पशुओं की बलि देने का ही रिवाज है। किसी भी परंपरा में मादा रपशुओं की बलि का प्रावधान नहीं है। यह परंपरा शाक्तों में भी ज्यों की त्यों चली आई। उसके बाद आई शैव परंपरा में भी यही परंपरा जारी रही। अंतर बस इतना आया है कि तब लोकदेवी-देवताओं के बजाय इसे नरसिंह,नागराजा और भगवती के नाम पर किया जाने लगा। उत्तराखंड में इसके पक्ष में भूगोल भी था और जिंदगी जीने की मजबूरियां भी। आर्य और खस जातियां मांसभक्षी थीं और इन बलियों में मारे जाने वाले पशुओं का मांस देवता का प्रसाद माना जाता था। देवता अक्सर लोगों के सपने में आकर बलि मांगा करते थे या लोग या गांव मनौती के रुप में भैंसे या बकरे की बलि देने का वादा किया करते थे।गढ़वाल में आजकल नवरात्र में व्रत और वैष्णव भोजन करने का जो रिवाज आया है यह दरअसल वैष्णव प्रभाव है जो आठवें और नवें दशक तक भी प्रचलन में नहीं था। यह उ त्तराखंड की जीवनपद्धति का हिस्सा नहीं है बल्कि विजातीय है। यह मूलतः उन समाजों के लिए है जो खेतिहर नहीं हैं। क्योंकि खेतिहर समाजों के स्त्री-पुरुष कठोर परिश्रम करते हैं और वे लगातार नौ दिन तक व्रत या उपवास नहीं रख सकते। उत्तराखंड में अष्टमी के दिन बलि देने की परंपरा रही है और मांस व सुरा को प्रसाद के रुप में ग्रहण करने की परंपरा रही है। उत्तराखंड के लोग मांसभक्षी रहे हैं इसलिए नवरात्र में मांस खाना उनमें कभी वर्जित नहीं रहा है। जाति की तरह ही यह परंपरा ब्राह्मणवाद या वर्णाश्रम धर्म से आई है। यह शैवों की जीवन पद्धति को कमतर व पिछड़ा साबित करने की वैष्णवों की साजिश रही है। उत्तराखंड के समाज हीनभावना से ग्रस्त रहे हैं इसलिए वे हर उस परंपरा या रिवाज को किसी तर्क और तुक के बिना ही तत्परता से ग्रहण कर लेते हैं जो मैदान से आती है।इसीलिए पशुबलि भी हीनता का प्रतीक मान ली गई है जबकि कई धार्मिक रीति-रिवाजों की तरह भी यह सदियों लंबी परंपराओं से आया हुआ विश्वास है। है। इसलिए पशुबलि के खिलाफ क्रूंरता संबधी जो कानून है वह विभिन्न समाजों के रिवाजों और धार्मिक परंपराओं पर लागू नहीं होता। यह दरअसल क्रूरता है भी नहीं बल्कि एक धार्मिक आस्था या विश्वास है। 

प्रसिद्ध गढ़वाली कवि और स्वतंत्रता सेनानी भगवतीचरण निर्मोही ने एक खाडू और एक बकरे की बातचीत पर एक गढ़वाली कविता लिखी है। इसमें मेंढ़ा और बकरा घर में डौंर और थाली बजने की आवाज से डर जाते हैं। इस खाडू-बकरा संवाद में बकरा बताता हैं कि यदि नागराजा का बाजा लगेगा तो मेरी शामत आएगी यदि नरसिंह का बाजा लगेगा तो तेरी शामत आएगी। यह एक सुंदर कविता है जो पशुओं की बातचीत के जरिये पशुबलि का विरोध करती है। इसी तरह लोककवि घनश्याम सैलानी की एक कविता में एक नरभैंसे का बयान भी शायद पशुओं के प्रति मानवीय करुणा की सर्वश्रेष्ठ कविता है। स्वामी मनमंथन समेत कई समाज सुधारक बलि प्रथा को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हुए इसके विरोध में आंदोलन चलाते रहे हैं। मनमंथन भी केरलीय ब्राह्मण थे और उन पर भी शंकराचार्य के वैष्णव धर्म का असर था। उन्हे भी पहाड़ी समाज और उसकी संस्कृति के प्रति कोई ज्ञान नहीं था और न उनकी उन परंपराओं में आस्था थी जो पहाड़ी समाज में सदियों के अनुभव और खेतिहर समाज के अर्थशास्त्र के चलते हुए विकसित हुई थी। वैसे भी उत्तराखंड के पढ़े लिखे लोग अपनी परंपराओं को लेकर हर समय हीन भावना और अपराधबोध से पीड़ित रहते हैं। इसलिए बलिप्रथा विरोधी आंदोलनों को शिक्षित लोगों का समर्थन ही हासिल रहा है।
मायथान का ताजा प्रकरण इसी नासमझी और स्थानीय परंपराओं के प्रति उत्तराखंड के प्रशासन के हिकारत वाले भाव से हुआ है। उत्तराखंड में बाहर आने वाले अफसर पहाड़ियों को मूर्ख और पिछड़े मानते हैं तो पहाड़ी अफसर अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं। मायथान में प्रशासन को कोई अधिकार नहीं था कि वह स्थानीय धार्मिक  परंपराओं और विशासों में हस्तक्षेप करें। इसलिए वहां फोर्स लेकर जाने वाले एसडीएम और तहसीलदार को तत्काल निलंबित कर दिया जाना चाहिए था। प्राासन को जवाब देना चाहिए कि क्या वह ऐसी ही जबरिया कार्रवाई किसी बीच सड़क में खड़े किसी मंदिर या मस्जिद को तोड़ने के लिए कर सकता है? क्या वह ऐसी हरकत ईद के दिन कटने वाले बकरों की कुर्बानी रोकने के लिए कर सकता है? फिर क्यों उसने एक समाज विशेष के खिलाफ ऐसी कार्रवाई की? क्या यह पक्षपातपूर्ण और दुराग्रह से प्रेरित नहीं है? प्रशासन का बस इतना ही काम था  िकवह निरोधात्मक कदम उठाकर बलिप्रथा बंद कराने वालों और बलि देने वालों के बीच संघर्ष होने से रोकता। यदि बलिप्रथा रोकने के समर्थक जबरन बलि रोकने पर आमादा रहते तो उनको गांव की सीमा में दाखिल होकने से पहले ही गिरफ्तार कर देता।परंतु प्रशासन तमाम कानूनों का उल्लंघन कर खुद ही मैदान में उतर गया। उ त्तराखंउड के गांवों में लाठीचार्ज और आंसूगैस के गोले छोड़ने की यह घटना निंदनीय है और ऐसे काम को अंजाम देने वाले अफसरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। उत्तराखंड की सरकार यदि पहाड़ के गांवों के लोगों का जीवन बेहतर नहीं कर सकती तो कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि लोगों को उनके हाल पर छोड़ दे।

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