शनिवार, 15 दिसंबर 2012

Desperate Modi needs Pakistan to help him in Assembly Election


          मोदी का कमालः विदेश नीति पर लड़ेंगे विधानसभा चुनाव
एस0 राजेन टोडरिया
लगता है कि नरेंद्र मोदी इस बार खासे मतिभ्रम की स्थिति में हैं। इसका कारण यह है कि वो दोहरे प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ रहे हैं। एक मुख्यमंत्री के रुप में अपनी गद्दी बचाने के लिए और दूसरा प्रधानमंत्री के दावेदार के रुप में भाजपा के भीतर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए। यह मतिभ्रम उनके भाषणों में झलक रहा है। उन्हे लग रहा है कि वह विधानसभा का नहीं बल्कि लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। इसलिए उनके भाषणों का फोकस विदेशनीति है। वह भी खासतौर पर पाकिस्तान को लेकर। पाकिस्तान नरेंद्र मोदी का प्रिय देश है। वह पाकिस्तान के सहारे गुजरात में अपनी इज्जत बचाना चाहते हैं। यह कमाल मोदी ही कर सकते हैं। एक व्यक्ति जो दस साल तक एक राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो,चुनाव से पहले जिसके द्वारा बहाई गई विकास की गंगा की आरती रतन टाटा से लेकर अंबानी तक देश के सारे बड़े औद्योगिक घराने,भारतीय जनता पार्टी और भी कई जाने माने बड़े लोग उतारते रहे हों,उसी नेता को विधानसभा चुनाव में अचानक पाकिस्तान की जरुरत शिद्दत के साथ महसूस होने लगे।


होना तो यह चाहिए था कि नरेंद्र मोदी यदि ईमानदार राजनेता होते तो गुजरात की जनता के सामने जाते और दो टूक शब्दों में कहते कि आप लोगों ने मुझे दस साल गुजरात को बनाने के लिए दिए। इस राज्य और उसके लोगों की इन दस सालों में मैने जो सेवा की है वो आप सबके सामने है। यदि आप समझते हैं कि मैने गुजरात की उन्नति की है तो मुझे जनादेश दें। लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा नहीं किया। पहले उन्होने गुजरातियों को अहमद पटेल के नाम से एक मुसलमान के मुख्यमंत्री बन जाने का डर दिखाया। किसानों और आम लोगों की समस्याओं के चलते यह अस्त्र नहीं चला तो उन्होने आखिरकार पाकिस्तान को चुनाव मैदान में घसीट ही लिया। वह सर क्रीक को ले आए। सर क्रीक पर विवाद थमा तो पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक को निशाना बना लिया। मोदी क्या चाहते हैं? कि गुजरात के लोग पानी, खेती,गरीबी,बेरोजगारी और जनससमयाओं पर वोट देने के बजाय सियाचिन ग्लेशियर, सर क्रीक, दाऊद और चीन सागर के मुद्दों पर विधानसभा में वोट दें। आखिर दस साल बाद भी यदि कोई मुख्यमंत्री अपने कामों के नाम पर वोट नहीं मांगता बल्कि पाकिस्तान के विरुद्ध वोट मांगता है तो इसका मतलब क्या है?
इस देश में सबसे आसान काम यदि है तो वह है पाकिस्तान का विरोध। क्योंकि पाकिस्तान के समर्थन में कोई बोलने के लिए मैदान में नहीं आने वाला। पाकिस्तान का विरोध करने पर उंगली कटवाए बगैर भी देशभक्त बना जा सकता है। चुनाव में जो मोदी पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद फैलाते रहे है ंवही मोदी एनडीए के समय क्यों मौन साधे रहे।  वह भी तब जब संसद पर हमले के बाद जब भारत की सेना वाजपेयी के राज में सीमा पर पाकिस्तान पर हमले के आदेश के लिए आठ महीने इंतजार करती रही । यह एक युद्धनीति और कूटनीति का जाना माना सिद्धांत है कि सेना जब सीमा पर तैनात तो होती है तो तब युद्ध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। सेना शेर है,यदि एक बार निकल पड़ी तो फिर शिकार करके ही लौटेगी। लेकिन देशभक्ति और युद्धोन्माद के सबसे बड़ी राजनीतिक सौदागर माने जाने वाली भाजपा के राज में सेना आठ महीने तक सीमा पर तैनात होने के बावजूद बिना युद्ध लड़े अपना सा मुंह लेकर घर लौट आई। इससे क्या भारत की किरकिरी नहीं हुई। क्या यह कमजोर नेतृत्व की पहचान नहीं है? नरेंद्र मोदी के भीतर का मुस्लिम विरोधी, पाकिस्तान विरोधी और देशभक्त  हिंदू उस समय क्यों नहीं बोला?यह दरअसल राजनीतिक दोगलापन है। नरेंद्र मोदी को लगता है कि विकास के नाम पर वोट मांगेंगे तो उनके द्वारा किए गए विकास से जो लाभान्वित हुए हैं वही वोट देंगे। ये लोग इतने कम है कि उनके नोट से पार्टी तो चल सकती पर उनके वोट से चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए नरेंद्र मोदी को एक खलनायक की जरुरत है। पाकिस्तान से बेहतर खलनायक कौन हो सकता है। पाकिस्तान का विरोध करने पर विकास से जुड़े सवाल पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। लोगों की जिंदगियों से जुड़े असली सवालों के बजाय ऐसे भावुक प्रश्न पैदा हो जाते हैं जो चुनाव के बाद खुद ब खुद पृष्ठभूमि में चले जायेंगे।
कौन नहीं जानता कि गुजरात विधानसभा विदेशनीति और रक्षा नीति से जुड़े सवालों पर निर्णय नहीं कर सकती। लेकिन मोदी विधानसभा चुनाव की बहस विकास से हटाकर पाकिस्तान पर केंद्रित करना चाहते हैं। अभी तक विधानसभा चुनाव राज्य के मुद्दों पर लड़े जाते रहे हैं लेकिन मोदी इतने शातिर राजनेता हैं कि इसे विदेश नीति के मसले पर लड़ना चाहते हैं। क्यों? दरअसल इस चुनाव में अभी तक मुस्लिम मुद्दा नहीं बन पाए। मोदी बेचैन हैं कि मुस्लिम क्यों नहीं चुनावी चर्चा के केंद्र में आ रहे। एक बार मुस्लिम चुनावी बहस के केंद्र में आ जाये ंतो मोदी के लिए हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण आसान हो जाएगा। दस साल तक जो व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो उसे एक बार फिर सिंहासन पर बैठने के लिए मुस्लिमों और पाकिस्तान की मदद चाहिए।  हैरत की बात तो यह है कि नरेंद्र मोदी में इतना साहस भी नहीं है कि वह कह सकें कि उन्हे पाकिस्तान का अस्तित्व मंजूर नहीं है। वह यह भी नहीं कह रहे हैं कि यदि वह प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान को भारत में विलीन कर देंगे। वह यह भी नहीं कहते कि उनका लक्ष्य धारा 370 खत्म करना और संविधान के उन सारे प्रावधानों रद्द करना है जिनके तहत अल्पसंख्यकों विशेष संरक्षण मिला हुआ है। मोदी की राजनीति की यही सबसे बड़ी विडंबना है कि वह बेहतर जीवन का भरोसा बंधाने वाली सकारात्मक राजनीति पर कम वैमनस्यता की नकारात्मक राजनीति पर ज्यादा भरोसा करते है। लेकिन उनमें वह राजनीतिक साहस नहीं है जो बाल ठाकरे में था या जो राजनीतिक साहस राज ठाकरे में है। मोदी ईमानदारी से न तो पाकिस्तान से नफरत करते हैं और न ईमानदारी से कट्टर हिंदुत्व से प्यार करते हैं। वह उन्मादी हिंदू मध्यवर्ग के बीच योद्धा तो दिखना चाहते हैं लेकिन हिंदूवाद के योद्धा बनना नहीं चाहते।

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