गुरुवार, 16 अगस्त 2012

The lesson from Bodo crisis in Assam


                                                  बोडो संकट के सबक
by Rajen Todariya

मुझे लगता है कि भारत का मुख्य हिस्सा बोडो जनजाति की प्रतिक्रिया के सही संदर्भ में नहीं पहचान पा रहा है। इसे शुरु से ही मीडिया ने सांप्रदायिक नजरिये से पेश किया जिसके नतीजे अब सामने आ रहे हैं। बोडो बहुल इलाके जनजाति इलाके हैं। सामान्य तौर पर जनजाति इलाकों में कोई बाहरी व्यक्ति न जमीन खरीद सकता है और न बस सकता है। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि जनजाति बहुल इलाकों के सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन बाहरी समाजों के अतिक्रमण से बचा रहे। यह बात समझ से परे है कि ऐसे इलाके में जहां बाहर के लोगों का बसना,भूमि खरीदना और रहना प्रतिबंधित था वहां इतनी बड़ी तादाद में बांग्लादेशी मुसलमान कैसे पहंुच गए? बोडो इलाका पहले ही असम से अलग होकर अलग राज्य मांग रहा है और असमिया वर्चस्व का हिंसक प्रतिवाद करता रहा है वहां इस तरह की घुसपैठ को जिसने भी प्रोत्साहित किया उसने आग में घी में डालने का ही काम किया। यह देशद्रोह है कि आप एक इलाके में इतनी बड़ी तादाद में घुसपैठ करा दें कि वहां के मूल निवासी ही संकट में पड़ जांय और उनके संसाधनों पर बाहरी लोग कब्जा करने लगें। ऐसे में देश एक कैसे रहेगा। बोडो क्यों नहीं हथियार उठायेंगे। क्योंकि उनके पास केवल बोडो इलाका ही तो है जहां वे बहुसंख्यक होकर रह सकते हैं। यदि आप वहां भी उन पर बाहरी लोगों का वर्चस्व स्थापित कर देंगे तो वे बागी होंगे ही। यदि उन्हे देश से न्याय नहीं मिलेगा तो वे हथियार लेकर न्याय के लिए लड़ेंगे। क्या यह सही है कि आपने सिर्फ वोट के लिए एक जनजाति को देश के खिलाफ हथियार उठाने के लिए बाध्य कर दिया जाय। लेकिन यह घुसपैठ सिर्फ बोडो इलाकों तक सीमित होती तो अपवाद माना जाता लेकिन आज देश के कई छोटे समाजों को अनियंत्रित बाहरी घुसपैठ के कारण अल्पसंख्यक होने का खतरा सताने लगा है।
People of North Eastern states flee Bengaluru

 रांची और झारखंड के आदिवासी और जनजातियों के सामने अल्पसंख्यक होने का खतरा हैं झारखंड की राजधानी में वे अल्पसंख्यक हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ में सुनियांेजित रुप से भाजपा सरकार ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक बनाने का काम किया है। यदि आज आबादी के आधार पर विधानसभा सीटें तय की जांय तो कश्मीर में मात्र एक तिहाई सीटें बचेंगी। यह परिसीमन लागू हो गया तो कश्मीर को भारत में रखना असंभव हो जाएगा। असम में 35 प्रतिशत बांग्लादेशी मुस्लिम आज राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में है। पंजाब में लुधियाना लोकसभा सीट पर पंजाबी और सिख अल्पसंख्यक हो चुके हैं। मुंबई के लिए कई लोगों का बलिदान देने के बावजूद अधिकांश सीटों पर महाराष्ट्रियन अल्पसंख्यक हो गया है। अलग पहाड़ी राज्य के 29 लोगों की शहादत देने वाले उत्तराखंड में विधानसभा सीटों का पलड़ा पहाड़ की बजाय मैदान की ओर झुक गया है।
यानी हर जगह अंधाधंुध और अनियंत्रित घुसपैठ के कारण राज्यों और इलाकों की सदियों पुरानी जनसांख्यकी बदल रही है । आक्रामक,विस्तारवादी और राजनीतिक रुप से प्रभावशाली बड़े समाज छोटे समाजों के रस्म रिवाज,त्यौहार, संस्कृति ही नहीं बदल रहे है बल्कि उनके आर्थिक संसाधनों पर भी कब्जा कर रहे हैं। इससे बाहरी लोगों के खिलाफ हर जगह एक प्रतिरोध पैदा हो रहा है। इससे मात्र दक्षिण भारत के राज्य बचे है जिन्होने पहले ही बाहरी राज्यों से आने वाली घुसपैठ को सख्ती से रोक दिया। क्योंकि वे आजादी के बाद से ही उत्तर भारत के वर्चस्व से आशंकित थे।बाहरी लोगों के वर्चस्व के खिलाफ पहली प्रतिक्रिया सत्तर के दशक में महराष्ट्र से आई थी,फिर देश के आदिवासी इलाकों से आई जिसे हमने ठीक से नहीं समझा और उन्होने हथियार उठा लिए। फिर यह प्रतिक्रिया पंजाब में दिखाई दी। पंजाब के शहरों का रंगरुप,मिजाज बदलने लगा वह पंजाब के मस्तमौला शहरों के बजाय पूर्वी यूपी और बिहार की शक्ल वाले शहर लगने लगे । पंजाब को दूसरा लुधियाना न बनने देने के लिए कुछ एहतियाती इंतजाम करने पड़े जिससे वहां इस पर रोक लगी है। अब ताजी प्रतिक्रिया असम से आई है। बोडो समस्या को सांप्रदायिक बनाए जाने के खेल ने सन्1947 की रेलों की याद ताजा करा दी है। हिंदू और मुस्लिमों से भरी ऐसी रेलें उस समय इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन को ढ़ो रहीं थी। वह भी 15 औैर 16 अगस्त का समय था और आज जब बंगलौर,पुणे, हैदराबाद से पूर्वोत्तर की रेलें खचचाखच भरी हुई हैं तब भी 15 और 16 अगस्त का ही समय है। आजादी के उस खून खराबे के ठीक 65 साल बाद हालात वहीं पहंुचते लग रहे हैं।
दरअसल मुख्यभूमि का जो भारत है वो अपने को ही संपूर्ण भारत मानता है। संसद, राजनीतिक नेतृत्व, मीडिया पर इसी मुख्यभूमि के भारत का कब्जा है। इसलिए यह भारत जगह-जगह बाहरी लोगों के खिलाफ होने वाली स्थानीय प्रतिक्रियाओं के खिलाफ तीखा प्रतिवाद करता है। उसका रुख उपनिवेशवादकाल के ब्रिटेन या स्पेन अथवा 1950 के बाद के अमेरिका की तरह होता है। उसके इस रवैये से स्थानीय समाजों को लगता है कि यदि उसे भारत में रहना है तो मुख्यभूमि के भारत की घौंसपट्टी सहनी ही होगी। बस यहीं से वह तानाबाना बिखरना शुरु होता है जिससे यह देश बना है। मुख्य भूमि के भारत के राजनेताओं और मीडिया को यह गलतफहमी है कि भारत नाम का देश अंबुजा या बिरला सीमेंट से बनी दीवार है जिसे वक्त भी खोखला नहीं कर सकता और न कोई प्रहार उसे तोड़ सकता है। लेकिन दुख इस बात का है कि भारत के कर्णधारों ने इतिहास में खंडहर हुए साम्राज्यों के  पतन से कुछ नहीं सीखा। अचरज की बात यह है कि भारत का शासक वर्ग महान सोवियत संघ के बिखरने की घटना से भी कुछ नहीं सीख रहा है। लेनिन के समय में सारी राष्ट्रीयताओं की पहचान और स्वायत्तता का सम्मान कर जिस सोवियत संघ की नींव पड़ी थी वह आठ नौ दशक में ही बिखर गया। सोवियत संघ और भारत में भौगोलिक और नस्लीय नजरिये से बहुत समानतायें हैं। सोवियत संघ जब मुख्य भूमि रुस का वर्चस्व बढ़ने लगा तो रूसी दादागिरी के भीतर बाकी समाज खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे तबसे सोवियत संघ बिखरने लगा था। इसकी शुरुआत लेंनिन के बाद सत्ता में आए स्टालिन के कार्यकाल से ही हो गई थी। दुनिया में सोवियत संघ के बाद सिर्फ चीन ही है जो भारत की तरह विशाल और जटिल सामाजिक और नस्लीय सरंचना वाला देश है। लेकिन चीन का मजबूत पक्ष यह है कि देश की आबादी में हान जाति 91.6 प्रतिशत है। इसलिए चीन नस्लीय नजरिये से उतना नाजुक देश नहीं है जितना कि भारत है। भारत में मुख्यभूमि का भारत अल्पसंख्यक है जबकि बाकी समाज जो राजस्थान से यूपी तक फैली हिंदी पट्टी में नहीं आते वे बहुसंख्या में है। इसकी तुलना बस पूर्व सोवियत संघ से हो सकती है वह भी इस जिक्र के साथ कि भारत की सैनिक शक्ति सोवियत संघ से काफी कम है।
इसलिए मुख्यभूमि का भारत अपनी धौंसपट्टी या वर्चस्व से देश को एक नहीं रख सकता। बल्कि उसकी ये कोशिशें देश को सोवियत संघ की तरह खंड-खंड कर सकती हैं। इस देश की एकता तभी संभव है जब वह संघीय ढ़ाचें यानी भारतीय समाज के सभी छोटे बड़े हिस्सों की पृथक पहचानों, सभी नस्लों और जातीय समूहों,संस्कृतियों और अस्मिताओं के लिए वर्चस्ववादी या विस्तारवादी संकट खड़े नहीं करेगा। भारत को एक रखना है तो सबसे पहले संविधान के उस प्रावधान में जरुरी संशोधन करने होंगे जो हर नागरिक को बिना किसी रेगुलेशन के अनियंत्रित और अराजक ढ़ंग से किसी भी राज्य या इलाके में बसने का अधिकार देते हैं। अच्छा हो कि बोडो संकट की रोशनी में केंद्र सरकार बिल लाए और हर राज्य की आबादी के अनुपात में परप्रांतीय लोगों के बसने और कारोबार करने की अधिकतम संख्या निर्धारित करे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करने का ही मामला है. कब्ज़ा करने वालों के साथ मीडिया भी है, प्रशासन भी और सरकार भी. बहुत बढ़िया आलेख जो इस समस्या की कई परतों को खोलता है.

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  2. कृपया कमेंट से word verification हटा दीजिए. इससे कमेंट लिखने में आसानी हो जाती है.

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