बुधवार, 6 जून 2012

Is Anna Hazare Marching on the Route of RSS


                टीम अन्ना या बिना झंडे-डंडे की टीम भगवा
by Rajen Todariya

टीम अन्ना बिना झंडे-डंडे की भगवा ब्रिगेड में बदलती जा रही है। एक तो कांग्रेस ने सुचिंतित रणनीति के तहत उसे भाजपा के पाले में धकेल दिया है तो दूसरी ओर वह भी वृहद संघ परिवार का हिस्सा बन गई है। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि टीम अन्ना और रामदेव दोनों की सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के राजतिलक के लिए राजमार्ग विकास प्राधिकरण का काम करते नजर आयें।
बिना विचारधारा के लोकप्रियतावादी नागरिक आंदोलनों के सामने सबसे बड़ा संकट उन्ही की लोकप्रियता खड़ा कर देती है। सन्1974 के जेपी आंदोलन को देखें तो यह संकट तब भी था। कांग्रेस विरोधी केंद्र बन जाने के कारण जेपी आंदोलन जनता पार्टी के अधकचरे गैर कांग्रेसवादी प्रयोग में बदल गया। चूंकि विचार प्रमुख नहीं था और सत्ता से कांग्रेस को हटाना प्रमुख लक्ष्य बन गया इसलिए महज ढ़ाई साल में जनता पार्टी प्रयोग बिखर गया और कांग्रेस और भी बड़े बहुमत से सत्ता में लौट गई। भ्रष्टाचार पर अन्ना के आंदोलन से उम्मीद जरुर जगी पर वह भी उसी रास्ते पर चल निकला। आज उसके ही नेताओं की साख पर सवाल उठ रहे हैं। उसके सदस्यों के एनजीओ को मिल रहे विदेशी और कारपोरेट फंड पर सवाल हैं। टीम अन्ना ने हर विषय पर अपनी राय रखने का जो सिलसिला शुरु किया है उससे यह भी लगने लगा है कि वे भी पेशेवर नेताओं की तरह चैनल आईडी देखकर कुछ भी बोलने को बेताब हो जाते हैं। उनमें भी अपने विरोधियों की आलोचना सुनने और उसे बर्दाश्त करने का लोकतांत्रिक टेंपरामेंट नहीं है। हाल ही में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों लगाए उनके आरोपों से यह धारणा और भी पुष्ट हुई है कि वे अब अंध कांग्रेस विरोध के रास्ते पर चल पड़े हैं। जाहिर है कि अब कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता उनका खुलेआम विरोध करेंगे। उनके कार्यक्रमों में के खिलाफ प्रदर्शन होंगे और उनके समर्थकों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक या अहिंसक टकराव भी होंगे। इससे टीम अन्ना के कार्यक्रमों में वही लोग आयेंगे जो कांग्रेसियों से दो-दो हाथ करने को तैयार होंगे। अन्ना चूंकि अब सीधे कांग्रेस के सामने हैं इसलिए कांग्रेसियों के लिए उन पर हमला करना आसान हो गया । गैर दलीय मर्यादाओं के भीतर रहते हुए किसी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेता की सार्वजनिक मुखालफत करना किसी भी पार्टी के लिए मुश्किल होता है। पर इसके लिए उस नागरिक आंदोलनों के नेता को खुद को नैतिक रुप से इतना बड़ा करना होता है कि वह हर पार्टी पर अपना नैतिक चाबुक चला सके।यह धर्मदंड के इस्तेमाल जैसा है। इसके लिए नेता को न्याय की कुरसी पर बैठना होता है और राजनीतिक चातुर्य और कूटनीति पर भरोसा करने के बजाय सच बोलना होता है और सच की नैतिक ताकत पर यकीन करना होता है।
 पिछले एक साल में आपने टीम अन्ना और अन्ना हजारे को देश ने कई बार झूठ बोलते हुए देखा है। ऐसा इसलिए है कि आपमें अपनी कमियां, अपने दुर्गुण स्वीकार करने की ताकत नहीं है।जाहिर है कि टीम अन्ना के लोग न सहज,साफगो इंसान हैं और न ईमानदार नेता। अन्य नेताओं की तरह टीम अन्ना के लोग भी यह भूल गए हैं कि आम लोगों की बुद्धिमत्ता उनके नेताओं से कहीं ज्यादा है। मुझे नहीं याद कि कभी किसी मामले पर टीम अन्ना के लोगों सार्वजनिक रुप से अपनी नाकामी या गलतियां स्वीकारी हों। खुद के अवगुणों को स्वीकार करने के साहस ने ही गांधी को महात्मा गांधी बना दिया। लेकिन गांधी की दैत्याकार तस्वीर लगाकर अनशन करने वाले अन्ना हजारे कभी गांधी को नहीं समझ पाए। उनकी टीम तो खैर गांधी और उनके रास्ते पर यकीन भी नहीं करती। रामदेव के साथ गठबंधन बनाने की जो अवसरवादिता है उससे भी सत्ता की राजनीति की कुटिलता ही नजर आती है। दोनों मिलकर देश की जनता को मूर्ख मानते हैं और एका का उसी तरह का नाटक कर रहे हैं जैसे आडवाणी के घर पर जाकर नरेंद्र मोदी करते हैं।
अन्ना हजारे की त्रासदी यह है कि जन लोकपाल आंदोलन के मुखौटे हैं उनकी स्थिति अटल बिहारी वाजपेयी से भी ज्यादा बुरी है। अटलजी तो जन्मजात नेता थे, प्रतिभा संपन्न और अद्भुत! इसलिए उन्हे भले ही मुखौटा कहा गया हो और वह भले ही मुखौटे की तरह लाए गए हों पर जब वह हटे तो उन्होने बता दिया कि आरएसएस कुछ भी कर ले लेकिन भाजपा का चेहरा तो अटल बिहारी ही रहेगे।उनके अनुभव ने आरएसएस को बता दिया कि जननेता शाखाओं की नर्सरी में ‘‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’’ रटाकर नहीं उगाए जा सकते। जनता का नेता तो अलमस्त शेर की तरह होता है उसे चाबुक के दम पर नहीं चलाया जा सकता। लेकिन अन्ना हजारे स्वाभाविक नेता नहीं हैं। यह सच है कि अन्ना ने रचनात्मक कार्य किए, आर्थिक रुप से ईमानदार भी रहे, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी लड़ी पर इन सबसे वह करिश्मा तैयार नहीं होता जो एक जननेता स्वाभाविक रुप से बनाता है। टीम अन्ना ने न्यूज चैनलों के जरिये उनकी एक लार्जर दैन लाइफ इमेज बनाने की सुंिचंतित रणनीति बनाई थी। इसके तहत उन्हे शहरी भारत और मध्यवर्ग का वैसा ही हीरो बनाया जाना था जैसा कि 1974 में जेपी थे। रात दिन चैबीसों घंटे खबरों चर्चाओं,परिचर्चाओं के जरिये पिछले एक साल से कारपोरेट मीडिया अन्ना हजारे का करिश्मा  और आभा मंडल तैयार करने के मैराथन प्रोजेक्ट में लगा हुआ है। भारतीय न्यूज चैनलों के अब तक के इतिहास में अन्ना हजारे ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिनको रिकार्ड समय मिला है। इतना समय कि उनके करीब सदी के महानायक अभिताभ बच्व्चन भी नहीं हैं। प्राइम टाइम पर अन्ना हजारे को मिले समय के आंकड़े जब कोई मीडिया शोधार्थी खोजेगा तो दुनिया को भी हैरत होगी और अभिताभ बच्चन भी चकित होंगे कि न्यूज चैनलों में सदी के महानायक सिर्फ और सिर्फ अन्ना हजारे और उनकी टीम है। न्यूज चैनलों पर खबरों,चर्चाओं का इतना लंबा धारावाहिक महाकाव्य रचने के बावजूद यदि अन्ना की सभाओं में मध्यम दर्जे के मैदान भी  खाली रह रहे हैं तो यह किसकी कमी है?
अन्ना हजारे को मीडिया की प्रयोगशाला का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग माना जाना चाहिए। यह पहली बार था जब भारतीय कारपोरेट मीडिया के अंग्रेजी और हिंदी हिस्से ने अपनी प्रयोगशाला में जनता का महानायक बनाने का महाप्रयोग किया। इस महाप्रयोग में हजारों फीट लंबे टेपों का इस्तेमाल हुआ। लाखों की तादाद में लोग न्यूज चैनलों पर राय व्यक्त करते हुए बताए गए। यह पहला प्रयोग था जब किसी आंदोलन का रिकार्डतोड़ सीधा प्रसारण किया गया। यदि यह प्रयोग कामयाब हो गया होता तो फिर जनता के महानायक न्यूज चैनलों के न्यूज रुम या प्रयोगशालाओं में तैयार किए जाने लगते। कारपारेट मीडिया के लिए इस प्रयोग की कामयाबी आज भी जीवन मरण का प्रश्न है। क्योंकि इससे या तो उसकी अपराजेय ताकत का सिद्धांत स्थापित हो जाएगा या फिर उसकी ताकत का तिलिस्म बिखर जाएगा। अन्ना की समस्या यह है क वह न्यूजचैनलों द्वारा बनाई गई इस महाकाय इमेज के बंदी हैं। उन्हे वही करना पड़ता है जिससे न्यूज चैनलों की सुर्खियां बनती हैं। इस तरह वह भी भूत कथाओं की तरह एक टीआरपी आइटम बन गए हैं।जिन्होने सन् 2004 में एनडीए के चुनाव कैंपेन ‘‘ फील गुड’’ का विश्लेषण किया होगा वे जानते हैं कि अति प्रचार किसी भी नेता या पार्टी के लिए कितना खतरनाक होता है। दरअसल ओवर एक्सपोजर और अंडर एक्सपोजर के बीच सही एक्सपोजर की सीमारेखा को जाना  और उसके दायरे में रहकर प्रचार करना ही जनसंचार का विज्ञान है।यह राजनीतिक संचार का बुनियादी सिद्धांत है। न्यूज चैनलों के ओवर एक्सपोजर ने अन्ना हजारे के उस करिश्मे को खत्म कर दिया जो दिल्ली में दिखाई दिया था।
लेकिन अन्ना केवल मीडिया के लिए ही गिनीपिग बने बल्कि आरएसएस भी उन्हे सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए गिनीपिग की तरह इस्तेमाल कर रहा है।राम मंदिर आंदोलन से एनडीए सरकार और उसके बाद आरएसएस की जमीनी ताकत में भारी कमी आई है।अब आरएसएस अपनी राज्य सरकारों पर आश्रित हो गया हैं। उसके आनुषांगिक संगठनों के खर्चों और सामाजिक पकल्पों के लिए सत्ता का होना अनिवार्य शर्त बन गई है। अपने प्रभाव से लगातार गिरते ग्राफ से ही आरएसएस के बौद्धिक वृहद संघ परिवार का सिद्धांत लेकर आए हैं। इसके तहत उन लोगों को आरएसएस के करीब लाने की कोशिश की जाती है जो कांग्रेस विरोधी तो हेैं पर नरम रुप से भाजपा के भी विरोधी है।इन लोगों में सामाजिक कार्यकर्ता, एनजीओ के जरिये रचनात्मक काम करने वाले महत्वपूर्ण लोग, सेना,गुप्तचर एजेंसियों और पुलिस के सेवानिवृत बड़े अफसर, बड़े उद्योगपति, एनआरआई, वैज्ञानिक,साहित्यकार,कलाकार,सिने कलाकार भी शामिल हैं। ये वे लोग हैं जो सांप्रदायिकता के सवाल आक्रामक नहीं हैं लेकिन इनकी सामाजिक साख बेहतर है। इस वृहद संघ परिवार में शामिल लोग बीजेपी के तो आलोचक हैं पर वे बुनियादी रुप से संघ परिवार और उसकी गतिविधयों का सार्वजनिक विरोध नहीं करते। इस वृहद संघ परिवार का इस्तेमाल संघ परिवार कांग्रेस पर हमले के लिए ही करता है वह भी बीजेपी के हल्के विरोध के साथ ताकि तटस्थ माने जाने वाले इन लोगों और संस्थाओं की निष्पक्ष साख बनी रहे। संघ परिवार को मालुम है कि कांग्रेस के नष्ट होने से मध्यवर्ग में जो स्पेस खाली होगा वह चुनाव में बीजेपी के ही काम आएगा। क्योंकि ंिहदी भाषी राज्यों में कांग्रेस के परिदृश्य से हट जाने का सीधा लाभ बीजेपी को मिलना तय है। इसलिए तटस्थ लोगों के वृहद संघ परिवार के कांग्रेस विरोध का लाभ उसी की झोली में जाएगा। इसीलिए संघ परिवार नरेंद्र मोदी को सन्     2014 के लोकसभा चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री का दावेदार के रुप में पेश किए जाने के खिलाफ है पर चुनाव के बाद मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे,ऐसा संघ परिवार नहीं कह रहा है। क्योंकि वह बुनियादी तौर पर मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के खिलाफ नहीं है। यदि समीकरण पक्ष में हुए तो उसे मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने में कोई एतराज नहीं है। मोदी को रणनीतिक तौर पर पीछे हटाकर संघ परिवार केवल मुस्लिम और उदार हिंदू वोटों को कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत होने से रोकना चाहता है। इसी के लिए उसे वृहद संघ परिवार की धर्मनिरपेक्ष छवि का सहारा चाहिए। सन् 2014 के चुनाव के लिए संघ परिवार ने अन्ना हजारे और रामदेव के जरिये जो बिसात बिछाई है वह बीजेपी को ही सत्ता में लाने की वृहद योजना का हिस्सा है। कांग्रेस विरोध के चक्रव्यूह में फंसे अन्ना भी इसी वृहद संघ परिवार का हिस्सा बन गए हैं। कांग्रेस के विकल्प के रुप में वामपंथ भले ही मौजूद हो लेकिन टीम अन्ना कांग्रेस विरोध के बावजूद वामपंथियों को केंद्र में आने का एक मौका देने की अपील नहीं कर सकती। इससे साफ हो जाता है कि अन्ना हजारे हों या स्वामी रामदेव दोनों ही हिंदू हृदय सम्राट मोदी के लिए बेलचा फावड़ा लेकर रास्ता तैयार करने में जुटे हैं। किसी आंदोलन की विचार हीनतायें अपने पतन के रास्ते इसी तरह तैयार करती हैं।

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