एसी हालों में नीरो बांसुरी बजाते रहे
और जंगल जलते रहे
बीता मंगलवार जंगलों पर बहुत भारी गुजरा। जंगलों पर सबसे ज्यादा आंसू बीते दिन ही बहाए गए। जंगल सबसे भारी भरकम,जटिल और महान विचार कल ही धरती पर उतरे और कल रात होते-होते दम तोड़ गए।बस एक दिन का विचार और लाखों का खर्च। कई बड़े और मंझोले लोग बीते दिन घर से खाना और नाश्ता करके नहीं निकले,क्योंकि उनको पर्यावरण की बरसी पर आयोजित महाभोज में ही अन्न ग्रहण करना था। पर्यावरण की चिंता में सलाद मर्दन, पनीर, बटर नान इत्यादि भोज्य पदार्थों को उदरीकृत कर अपने दुखों को कम करना था। गनीमत यह थी कि कल मंगलवार था। यदि हनुमानजी आड़े नहीं आए होते तो कई मुर्गों और बकरियों की अस्थियां इन महान पर्यावरण चिंताओं की गवाही देतीं। पर्यावरण पर जितने दुखी व्यक्ति मैने बीते दिन एयरकंडीशंड हाॅलों में देखे उतने कभी नहीं देखे। राज्य के सारे बड़े लोग,बुद्धिजीवी सब दुखी, चिंतित और विचार मग्न! राज्य के मुख्यमंत्री भी दुखी, मुख्य सचिव और वनसचिव भी दुखी, प्रमुख वन संरक्षक दुखी, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव, अध्यक्ष भी दुखी, पर्यावरण खबरों के नायक बुद्धिजीवी और पुरुस्कारों की चाह में दुबले हो रहे पर्यावरण विद् दुखी, एनजीओ वाले दुखी। मुझे लगा कि गुरु नानक ने अवश्य ही कभी किसी विश्व पर्यावरण दिवस को देखा होगा और वे खुद को यह कहने से नहीं रोक पाए, ‘‘नानक दुखिया सब संसार ’’ जंगलों को हजम करने वाले मगरमच्छों ने जंगलों पर इतनी गहरी और गंभीर चिंतायें व्यक्त की कि जंगल भी हैरान होकर बोल पड़े,‘‘ हे भगवान !’’ एसी कमरों में बैठे उत्तराखंड के नीरो पर्यावरण की बांसुरी बजाते रहे और जंगल जलते रहे।
भारत अद्भुत देश है। यहां हर युग मे हर क्षेत्र में कर्मकांडियों के ऐसे गिरोह सक्रिय रहे हैं जो विचारों से लेकर परंपरा, संस्कृति, धर्म सबको कर्मकांडी अनुष्ठान में बदल देने की असाधारण योग्यता रखते हैं।वैदिक भारत के बाद आई इस कर्मकांडी प्रवृत्ति ने धर्मों संे लेकर राजनीति तक हर विचार को सर के बल खड़ा कर दिया।भगवान बुद्ध ने कर्मकांड और मूर्तिपूजा को लेकर विद्रेाह किया और भारत में भाई लोगों ने उन्ही की बनवा दी। कम्युनिस्टों से लेकर समाजवादी लोहिया तक किसी को भी भारतीय कर्मकांड ने नहीं बख्शा। सबको अपने रंग में रंग दिया। कर्मकांड के इस दिग्विजयी सवार ने विचारधाराओं को रौंदकर उन्हे अनुष्ठान में बदल दिया। विश्व पर्यावरण दिवस को भी भारतीय नेताओं,वन विभाग और भारतीय प्रशासनिक सेवा के नौकरशाहों, पर्यावरण के महाभोज में जुटे एनजीओ और पर्यावरण गिद्ध माने जाने वाले पर्यावरण विदों ने पर्यावरण दिवस को पर्यावरण की बरसी बना दिया। बीते दिन पूरे राज्य में धूमधाम से पर्यावरण की बरसी मनाई गई। लाखों रुपए का भोजन उदरस्थ हुआ। एसी की शीतल छांव में धाराप्रवाह चिंतन का जो सिलसिला कल चला तो लंच से पहले नहीं रोका जा सका। जयशंकर प्रसाद होते तो कहते, ‘‘ होटल के हाॅल में बैठ एसी की शीतल छांव/ अनेक पुरुष भीगे नयन, भारी जेब, आकंठ भरे पेट से देख रहे थे/ दावाग्नि का प्रलय प्रवाह।’’
यह व्यंग नहीं है दरअसल हालात हैं जो व्यंग जैसे लग रहे हैं। लेकिन जब जंगल जल रहे हों और उसकी रक्षा के लिए मुकर्रर लोग राजधानी और जिला मुख्यालयों में लंच के साथ पर्यावरण दिवस पर बड़ी-बड़ी चिंतायें कर रहे हों तो यह मजाक नहीं लगेगा तो क्या लगेगा। जंगलों में आग लगे महीने से ज्यादा हो गया है। पहाड़ में शायद ही कोई इलाका बचा हो जहां जंगल की आग ने अपने काले निशान न छोड़े हों। यह कालिख जितनी धरती पर बिखरी है उससे कहीं ज्यादा वन विभाग के दामन पर लगी है। क्यों न लगे? इतने दिनों की आग में हमने कभी नहीं सुना कि कोई डीएफओ आग बुझाने के लिए जंगल में कैंप कर रहा है। कोई वन संरक्षक, मुख्य वन संरक्षक या प्रमुख वन संरक्षक आग बुझाने जंगल में नहीं गया। आग बुझाने का काम जोखिम भरा है और असुविधाजनक भी। क्योंकि इससे जबरदस्त डिहाइड्रेशन होता है। जंगलों की समस्या यह भी है कि वे सड़क पर नहीं उगते उन तक पहंुचने के लिए पैदल चलना होता है। वन विभाग के 90 प्रतिशत अफसरों और सुपरवाइजिंग स्टाफ तोंदियल लोगों का कुनबा है। इन तोदों के विकास में वृक्षारोपण समेत वन संवर्द्धन के बजट का कितना योगदान है,यह अलग से शोध का विषय है। जब वन संरक्षकों की फौज एसी कमरों में बैठी रहेगी तो जंगल की आग कौन बुझायेगा,कौन उसकी चैकीदारी करेगा? वन विभाग के नौकरशाह चाहते हैं कि वे अपने एसी कमरों में टीक की क्लासिकल मेजों के पीछे आरामदेह कुर्सियों पर ऊंघते रहें या फाइलों पर दस्तखतों की चिड़ियायें बिठाते रहें और निचले दर्जे के कर्मचारी और गांव वाले मिलकर जंगलों की आग बुझाते रहें। यह कैसे संभव है?आज के गांव वाले सत्तर के दशक की तरह सीधे-सादे और बेवकूफ किस्म ग्रामीण प्रजाति से आगे चले आयें हैं। वे जानते हैं कि कौन कहां बजट को ठिकाने लगा रहा है।
अंग्रेजों के जमाने के फारेस्ट अफसरों ने जंगलों के बीच डाक बंगले बनाए थे। वे हर साल जंगलों का मुआइना करते थे और इन डाक बंगलों में डेरा डालते थे। वे अंग्रेज थे पर पहाड़ के जंगलों को समझना चाहते थे। पहाड़ के जंगलों के बारे में जितना उन्होने लिखा उतना किसी ने नहीं। आज के वन विभाग के अफसरों ने अपने क्षेत्र के वनों के बारे में हजार शब्द भी नहीं लिखे,किताब लिखना तो दूर की बात है। अंग्रेजों जमाने के डाक बंगले खंडहर हो गए हैं। जिनकी नौकरियां जंगलों के कारण हैं,जिनके बंगले इन जंगलों की बदौलत बने हैं वे जंगल में नहीं रह सकते। मंत्री और वन सचिव तो छोड़िये डीएफओ और सहायक वन संरक्षक भी जंगल में नहीं घूमते। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव जयराज हरिद्वार के एक भू माफिया की आवासीय काॅलोनी का भूमिपूजन करने के लिए इतने बेकरार हैं कि उसके लिए औद्योगिक क्षेत्र में उद्योगो का जीना हराम कर दिया। सचिव महोदय ने अपने एक बड़े होटल में पर्यावरण दिवस पर लंच ,मंच और पर्यावरण प्रपंच तो कर लिया लेकिन देहरादून के लोगों धूल से त्रस्त करने वाले एडीबी के ठेकेदारों के खिलाफ अभी तक कार्रवाई नहीं की। श्रीनगर चैरास में धूल नियंत्रित करने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जीवीके के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता। जबकि इन सबको अपनी साइट पर धूल नियंत्रक डिवाइसें लगानी चाहिए थी।
बीते दिन जब पर्यावरण का एसी चिंतन चल रहा था तब अपने गांवों में हरे-भरे जंगल उगाने और उन्हे आग से बचाने वाली कई महिलायें तपती धूप और प्यासे कंठों के साथ उत्तराखंड जनमंच के बैनर तले विश्व पर्यावरण दिवस को काला दिवस के रुप में मना रही थीं। किसी फारेस्ट के अफसर ने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि पहाड़ से मीलों पैदल चलकर आए जंगलों के ये रखवाले क्यों पर्यावरण के खिलाफ काले झंडों के साथ सड़कों पर चिल्ला रहे हैं। मुख्यमंत्री की पर्यावरण चिंता में एक शब्द उन गांव वालों के नहीं था जिनके खेतों को बंदरों और सुअरों की फौजों ने बरबाद कर दिया है। एक बार भी यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि गांवों के लोग जंगलों की आग बुझाने में पहले जैसा सहयोग क्यों नहीं कर रहे हैं। और तो और इनमें से किसी ने भी दो मिनट का मौन उन गांव वालों के लिए नहीं रखा जो जंगल की आग में खाक हो गया। ऐसे निर्मम और संवेदनहीन पर्यावरण गिरोहों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
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