कलियुग के अखबार या द्वापर के धृतराष्ट्र
एस0राजेन टोडरिया
Pro Hydro power agitators block Badrinath Highway on the opening day of Badrinath Temnple but media ignored it |
उत्तराखंड में अखबारों का हाल भी अजब-गजब है। इस राज्य का हर आदमी जानता है कि इन अखबारों का अपना एजेंडा है। और ये एजेंडा कोई जनहित का नहीं बल्कि येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना है। पैसा कमाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उत्तराखंड जनमंच और पीपलकोटी परियोजना बचाओ संघर्ष समिति समेत कुछ और संगठनों ने भगवान बदरीनाथ के पट खुलने के दिन सांकेतिक चक्काजाम का ऐलान किया। चक्का जाम से ठीक एक दिन पहले कुछ अखबार खबर छापते हैं कि प्रस्तावित चक्का जाम स्थगित कर दिया गया है। यह खबर चक्काजाम करने वाले संगठनों या व्यक्तियों के हवाले से नहीं छपती बल्कि इसे कांग्रेस के किसी ब्लाॅक अध्यक्ष जैसे गुमनाम से व्यक्ति के हवाले से छापा जाता है। पर खबर को पूरी तरह से हाईलाईट किया जाता हे। पूरे राज्य के सभी संस्करणों में इसे छापा जाता है। लेकिन अखबारों ने यह जरुरत भी नहीं समझाी कि जिन संगठनों ने चक्का जाम का ऐलान किया है जरा उनसे भी पूछ लिया जाय कि क्या वाकई चक्काजाम वापस हो गया है। ये किस तरह की पत्रकारिता है कि आप जनता को सूचना देना के बजाय उन्हे गलत सूचनायें दे रहे हैं,उन्हे भ्रमित कर रहे हैं। यह कितनी बड़ी अनैतिकता और साजिश है कि आप चूंकि पनबिजली परियोजना बनाए जाने के पक्षधर नहीं हैं इसलिए परियोजनायें बनाने के पक्षधर संगठनों के आंदोलनों को नुकसान पहुंचाने के लिए अखबार खुद मैदान में उतर कर गलत खबर छापने लगेंगे। अखबार अगर आंदोलनों के खिलाफ साजिश में उतर रहे हैं तो उसका साफ लक्ष्य है कि इस राज्य में वही आंदोलन चलेगा जो अखबारों को पसंद होगा। आखिर अखबारों को परियोजना समर्थक आंदोलन से तकलीफ क्या है? क्यों वे पत्रकारिता की नैतिकता और आचार संहिता को ताक पर रखकर गलत खबर छापने की हद तक चले गए हैं। दरअसल परियोजना समर्थक आंदोलन के भीतर एक धारा पहाड़ी क्षेत्रवाद की भी है। पहाड़ी के नाम से ये अखबार बिदकते हैं। राज्य बनने के बाद जो उत्तराखंड में जो ताकतवर पहाड़ विरोधी गठबंधन बना है,ये अखबार उस गठबंधन के सबसे बड़े घटक हैं। इस गठबंधन में पहाड़विरोधी आईएएस लाॅबी, कुछ इंजीनियर, निदेशक, कुछ बिजनेसमैन, कुछ गाजियाबाद और यूपी के बड़े ठेकेदार और कुछ पहाड़ी और मैदानी नेता शामिल हैं। इनके नाम भी उजागर किए जा सकते हैं । ऐसी सभी जानकारियों की लंबी सूची है जो बतायेंगी कि किस तरह से पीसीएस, उच्च शिक्षा, विभागीय निदेशकों, कुलपतियों समेत महत्वपूर्ण पदों से पहाड़ियों को मक्खी की तरह बाहर फेंका गया। वो सूची भी हमारे पास है जो बतायेगी कि सचिवालय के लिए फाईल कवर खरीदने से लेकर साॅफ्टवेयर खरीदने और एडीबी से लेकर पीएमजीएसवाई तक के ठेकों में किस तरह से बाहरी ठेकेदारों को पनपाया गया और उनके पक्ष में नीतियां बनाई गईं। उन पत्रकारों की सूची भी एक न दिन जारी होगी जिन्होने उत्तराखंड में दून से लेकर औली तक करोड़ों रु0 की संपत्तियां बनाई हैं। यह भी जांच का विषय है कि एक अखबार के संपादक ने कैसे विभिन्न नामों से पचास करोड़ की अचल संपत्ति जोड़ दी। उन आईएएसों के नाम भी उजागर होंगे जिन्होने पहाड़ के विभिन्न राजमार्गों और पर्यटन स्थलों में या तो सरकारी जमीनें अलाॅट कराई हैं या फिर अपने पद का नाजायज लाभ उठाकर जमीनें कौड़ियों के भाव खरीदी हैं।
चूुकि पहाड़ी क्षेत्रवाद से लूट में लगे इस पूरे गिरोह को खतरा है इसलिए इन सबका एक ही एजेंडा है कि ऐसे संगठनों को हतोत्साहित करो जो पहाड़ी क्षेत्रवाद के एजेंडे पर चल रहे हैं। अखबारों की शक्ल में आए इन मोहम्मद गौरियों को भी डर है कि यदि उत्तराखंड भी राज ठाकरे की भाषा में बोलने लगा तो उनके हाथ से लूट का यह स्वर्ग छिन जाएगा। अखबारों और न्यूज चैनलों को लगता है कि यदि पहाड़ीवाद चलेगा तो कल के दिन कोई पहाड़ी अखबार या न्यूज चैनल भी शुरु होकर इनकी दुकानदारी बंद कर देगा।अखबारों और चैनलों के भीतर पहाड़ी सरोकारों को शिद्दत से उठाने वाले पत्रकारों का रहना मुश्किल किया जा रहाहै। एक अखबार ने तो पहाड़ी पत्रकारों के खिलाफ सफाया अभियान छेड़ दिया है। दूसरे ने पहाड़ के पक्ष में लिखने वाले पत्रकारों को पनिशमेंट पोस्टिंग पर भेज दिया है। चैनलों का भी यही हाल है। पत्रकारिता में पहाड़ियों के पक्ष में लिखना-बोलना कुफ्र करार दे दिया गया है।
मैं चक्काजाम के बारे में फैलाए गए भ्रम से चकित नहीं हूं और न दुखी। क्योंकि यह एक और सबूत है जो बता रहा है कि अखबार दरअसल अपने क्षेत्रवादी एजेंडे पर चल रहे हैं। लेकिन पत्रकार होने के नाते मुझे यह चिंतित करती है। क्योंकि जब अपना काम करते हुए पत्रकार पर एक क्षेत्र विशेष की मानसिकता से चलने का आरोप लगता है तो उसकी साख खत्म हो जाती है और उसकी सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। क्योंकि पत्रकार को तो आम लोगों के बीच रहना होता है। यदि आम लोग उसके साथ नहीं होंगे तो वह साॅफ्ट टारगेट हो जाएगा। हम लोग जब हिमाचल में थे तब उत्तराखंड के प्रवासियों ने कई बार हमसे हिमाचल के भूमि कानून के खिलाफ खबर छापने को कहा लेकिन उस समय की अखबार की फाइलें गवाह है कि हमने एक-दो सिंगल काॅलम बयानों के अलावा कभी भी भूमि कानून के विरोध को हवा नहीं दी। क्योंकि हमारी समझ थी कि भूमि कानून ने हिमाचल के लोगों को बचाया है। हमारी निष्ठा हिमाचल की जनता के प्रति थी न कि प्रवासी उत्तराखंडियों के साथ। लेकिन उत्तराखंड में बाहर से आए पत्रकारों में से 70 प्रतिशत पत्रकार पहाड़ियों के प्रति क्षेत्रवादी पूर्वाग्रह से पीड़ित हैं । सिर्फ तीस प्रतिशत बाहरी पत्रकार ऐसे हैं जो पेशेवर ईमानदारी के साथ पहाड़ की जनता के प्रति हमदर्दी रखते हैं। इनमें से कुछ तो बेहद शानदार लोग हैं और मैं किसी भी पहाड़ी पत्रकार से ज्यादा उन लोगों से प्यार करता हूं। क्योंकि वे मेरे इस भरोसे को मजबूत करते हैं कि पत्रकार किसी देश का या क्षेत्र का नहीं होता बल्कि वह ऐसा मानववादी होता है जो दमित और उपेक्षित समाजों और राष्ट्रीयताओं के अधिकारों की रक्षा करने वाला चैंपियन है।
अखबार चक्काजाम स्थगित किए जाने की झूठी खबर पर नहीं रुके बल्कि 29 अप्रैल को उन्होने बदरीनाथ मंदिर कमेटी के हवाले से यह भी छाप दिया कि चक्काजाम से यात्रा पर बुरा असर पड़ता है।इससे स्थानीय व्यापारियों को नुकसान होता है। यह स्थानीय व्यापारियों और यात्रियों को चक्का जाम करने वालों के खिलाफ भड़काने की साजिश थी। मंदिर कमेटी ने भी वह बयान पत्रकार के सवाल के जवाब में दिया न कि खुद आधिकारिक बयान जारी किया। मीडिया का यह खेल बताता है कि वह किस कदर एक आंदोलन के खिलाफ है कि उनके खिलाफ लोगों को भड़काने की हद तक गिर गया है। लेकिन यात्रियों और स्थानीय व्यापारियों के कारोबार के लिए चिंतित अखबारों के इन बहादुर योद्धाओं को पिछले चार साल में यह नजर नहीं आया कि सीमा सड़क संगठन की लापरवाही ने पूरे बदरीनाथ राजमार्ग को तहस नहस कर दिया है। सड़क खराब होने से हो रहे भूस्खलनों से छह महीने का सीजन सिमटकर मात्र 45-60 दिन का रह गया है।इससे हर साल कारोबारियों को करोड़ों रु0 का नुकसान हो रहा है। मई जून में भी बदरीनाथ राजमार्ग पर जगह-जगह घंटों जाम लगा रहता है पर वह अखबारों को नजर नहीं आता। सिर्फ उत्तराखंड जनमंच के एक घंटे के जाम से यात्रा और कारोबार खतरे में पड़ जाता है। यह यदि पत्रकारिता है तो फिर झूठ और पूर्वाग्रह क्या है?इस पूरे विवाद की महत्वपूर्ण बात यह है कि गलत खबर छापे जाने के बावजूद जब चक्का जाम हो गया लेकिन इन अखबारों ने उसे चमोली-गढ़वाल वाले संस्करण तक सिमटा दिया।जबकि स्थगन की खबर सारे संस्करणों में छापी गई। द्वापर के धृतराष्ट्र ऐसे ही तो रहे होंगे!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें