शनिवार, 21 अप्रैल 2012

Hydro Power Controversy : It is do or die battle for Uttrakhand


                              पनबिजली के अलावा विकल्प नहीं


राजेन टोडरिया

पनबिजली परियोजनाओं को लेकर जो आशंकायें है वे बेबुनियाद है। क्योंकि गंगा और अन्य नदियों के प्रदूषण से रन आफ द रिवर परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है। दरअसल रन आफ द रिवर परियोजनायें पानी को ज्यादा शुद्ध करती हैं।पनबिजली परियोजनायें उत्तराखंड की आर्थिक रीढ़ हैं। इसके बिना राज्य की अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती।
उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था की जो वर्तमान प्रवृत्तियां हैं वे चिंतित करने वाली हैं। राज्य के कर राजस्व का अधिकांश हिस्सा शराब,खनन और स्टांप शुल्क से आ रहा है। बिक्री कर से राजस्व वसूली को बढ़ाने की एक निश्चित सीमा है।खासकर तब तो और भी जब जनता का एक बड़ा हिस्सा महंगाई से पीड़ित है। ऐसे हालात में सरकार के पास एक ही रास्ता है कि वह शराब के व्यापार को बढ़ावा दे या फिर खनन को प्रोत्साहित करे। बिना इसके राजस्व घाटे पर काबू पाना मुश्किल है।सरकार अपनी राजस्व आय से गैर योजना खर्च की भरपाई नहीं कर पा रही है। इसलिए राजस्व आय बढ़ानी जरुरी है ताकि विकास कार्यों के लिए ज्यादा से ज्यादा धन जुटाया जा सके। प्राकृतिक संसाधनों के नजरिये से राज्य समृद्ध है पर  वह भी या तो जंगल के रुप में है या फिर जल संसाधन के रुप में। वन कानूनों के कारण उत्तराखंड वनों की चैकीदार मात्र बनकर रह गया है। अब राज्य के पास केवल जल संसाधनों के उपयोग का विकल्प बचा है। इसलिए एक राज्य के रुप में उत्तराखंड के पास दो ही विकल्प हैं या तो वह पहाड़ों खनन के जरिये राजस्व बढ़ाये या फिर शराब के जरिये राजस्व बढ़ाये। ये दोनों ही विकल्प राज्य के समाज और पर्यावरण को बर्बाद कर देंगे। इन परिस्थितियों में पनबिजली उत्पादन राज्य की अर्थव्यस्था की मजबूरी है। पनबिजली के उत्पादन को लेकर लोगों और पर्यावरण विज्ञानियों की आपत्ति बांधों को लेकर रही है। क्योंकि बांधों से मानव विस्थापन ज्यादा होता है और बांधों के लिए चैड़ी घाटियां ही उपयुक्त होती हैं इसलिए अक्सर बांध वहीं बनाए जाते हैं जहां उपजाऊ इलाके होते हैं। बांध पानी की गुणवत्ता पर भी बुरा असर डालते है।इसलिए बांध आधारित परियोजनाओं का मानव मूल्य और पर्यावरण मूल्य कहीं ज्यादा होता है। इसलिए रन आफ द रिवर परियोजनाओं के निर्माण के विकल्प को अपनाया गया । रन आफ द रिवर प्रोजेक्टों का एक ही नुकसान है कि सुरंग बनाने की प्रक्रिया में होने वाले विस्फोटों से इसके इर्द-गिर्द के इलाके में मकानों में दरारें आ जाती हैं और जलस्त्रोत गायब हो जाते हैं या उनमें पानी कम हो जाता है। सुरंग के प्रवेश और मुहाने वाले इलाके में निर्माण कार्यों के कारण वन या कृषि भूमि को कुछ नुकसान पहुंचता है। सुरंग में तीखे ढ़लान से पानी चूंकि तेजी से गुजारा जाता है इसलिए उसका शुद्धिकरण मूल धारा से कहीं ज्यादा बेहतर होता है। इसीलिए पर्यावरण विज्ञानी और भूगर्भ विज्ञानी रन आफ द रिवर परियोजनाओं को ज्यादा सुरक्षित विकल्प मानते रहे हैं।यही वजह है कि जो लोग प्रोजेक्टों का विरोध कर रहे हैं वे पर्यावरण या अन्य वैज्ञानिक कारणों से नहीं बल्कि आस्था के नाम पर कर रहे हैं। यह उनकी पहली हार है।
इन प्रोजेक्टों की खासियत यह भी है कि इनके लिए निर्जन इलाकों या संकरी घाटियों का चुनाव कर मानव विस्थापन को न्यूनतम किया जा सकता है। पनबिजली परियोजनाओं की मुश्किल अब तक यह रही है कि वे स्थानीय निवासियों की संपन्नता में कोई योगदान नहीं करती। वे आम लोगों के जीवन की मुश्किलों को कम नहीं करती उल्टे बढ़ा देती हैं। पनबिजली प्रोजेक्टों को संचालित करने वाली एजेंसियों से स्थानीय लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए कोई नियामक संस्था न होने कारण भी पनबिजली परियोजनायें अलोकप्रिय होती जाती हैं। इसलिए जरुरी है कि पनबिजली परियोजनाओं से होने आय के एक महत्वपूर्ण हिस्से का उपयोग प्रभावित इलाकों के लोगों के जीवन को समृद्ध और सुखी बनाने में किया जाय। पनबिजली को अंधाधुंध कमाई का साधन बनाने के बजाय लोककल्याण के औजार के रुप में इस्तेमाल किया जाय। सरकार चाहे तो विस्थापित और प्रभावित आबादी को बेहतर जीवन के साधन मुहैया कराकर पनबिजली परियोजनाओं के पक्ष में सकारात्मक माहौल भी बना सकता है।इस समय उ त्तराखंड को एक प्रो-एक्टिव रोल की जरुरत है।

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