रविवार, 25 मार्च 2012

The killer Elephant in Rajaji National park is back



                                                 हद से बाहर हाथी
एस0राजेन टोडरिया

कथित पशुप्रेमियों का दबाव और वन विभाग और राजाजी नेशनल पार्क के अफसरों का जनविरोधी रवैये से अनियंत्रित हुए हाथियों के कहर ने एक और जवान लड़के मनमोहन रावत की जिंदगी लील ली। हाथियों के हमले में मात्र ऋषिकेश-ढ़ालवाला में ही यह 19 वीं मौत है। मनमोहन रावत की अभी तीन महीने पहले ही शादी हुई थी। आदमखोर बाघ से लेकर जंगली हाथियों के हाथों होने वाली हर मौत गुस्से से भर देती है।
दरअसल उत्तराखंड एक अरण्य है या यूं भी कह सकते हैं कि यह राज्य यहां के लोगों के लिए दंडकारण्य है तो शायद गलत न होगा। इस दंडकारण्य में वन विभाग के अफसरों का रवैया भी आम जनता के प्रति हिंसक जानवरों से कमतर नहीं है। ढ़ालवाला और चैदहबीघा में पिछले साल एक हाथी ने जिस तरह से 18 लोग मारे थे उसके बाद उस हाथी को मार दिया जाना चाहिए था पर वन विभाग और राजाजी नेशनल पार्क के अफसरों ने हाथी को मारने नहीं दिया। कथित पशुप्रेमियों और मीडिया ने ऐसा दबाव बनाय किया कि लगा जैसे हाथी को मार दिया गया तो प्रकृति को भारी नुकसान हो जाएगा या अनर्थ हो जाएगा। आश्चय्र की बात यह है कि आदमी के पक्ष में कोई भी बोलने को तैयार नहीं। यहां तक कि वे भी नहीं बोले जिनके प्रियजन हाथियों के हमलों में मारे गए थे। वह पागल हाथी बचा दिया गया। वन विभाग की लापरवाही देखिए कि उसने उस हाथी में रेडियो काॅलर भी नहीं लगाया जिससे उस हाथी के आवागमन पर निगरानी रखी जा सके। कुछ महीनों की शांति के बाद बीते दिन फिर एक और आदमी हाथी ने मार दिया। वन विभाग यह जरुर कह रहा है कि यह वह हाथी नहीं है पर उसके पास कोई ठोस सबूत नहीं है कि यह दूसरा हाथी है। क्योंकि रेडियो काॅलर होता तो वे सबूत के साथ बता सकते थे। वन विभाग ने खाईयां खोद कर भी आम लोगों को हाथी के कहिर से बचाने की कोई व्यवस्था ऋषिकेश से सात मोड़ तक के 15 किमी के काॅरीडोर में नहीं की जबकि वनविभाग इस काॅरीडोर को खाईयों के जरिये 500 मीटर तक सीमित कर सकता था। इससे लोगों को केवल आधा किमी के क्षेत्र में ही सर्तकता के साथ चलना होता और इतने क्षेत्र में सीसीटीवी कैमरे लगाकर हाथियों के आवागमन पर निगरानी रखी जा सकती थी। वन विभाग अभी यह तय नहीं कर पाया है कि कितने आदमी मारने के बाद किसी हाथी को मारा जा सकता है। वन विभाग को साफ करना चाहिए कि इतने आदमी मारे जाने के बाद हाथी निश्चित तौर पर मार दिया जाएगा।
मनमोहन का घर विलापों के कोलाहल में डूबा है ऐसी कोई आंख नहीं जो रोते-रोते सूजी न हो। लेकिन क्या ये विलाप जंगल के अफसरों के हेडक्वार्टर अरण्य भवन तक पहंुचते हैं। क्या फाॅरेस्ट के अफसरों को भी ये मौतें दुखी करती होंगी।शायद नहीं। जब मनमोहन के घर में दुख का पहाड़ टूटा हुआ था तब वन विभाग के अफसर सरकार के भविष्य को लेकर हो रही चर्चाओं में मशगूल रहे होंगे या  बजट को ठिकाने लगाने की जुगत खोज रहे होंगे। अन्यथा क्या ऐसा संभव है कि 21 वीं सदी के तकनीकी युग में ऐसे हाथियों पर काबू न पाया जा सके। आदमी के लिए असंभव क्या है? हाथी के आगे आदमी असहाय कैसे हो सकता है। यह सरकारी नौकरशाही की चरम संवेदन हीनता है। ऐसी संवेदन हीनता जिसके आगे ब्रिटिश राज के अफसर ज्यादा जनपक्षीय लगते हैं।
 1920 से लेकर 1928 तक रूद्रप्रयाग के आदमखोर के आतंक के उस दौर में भी अंग्रेज अफसर लोगों की जान को लेकर आज से कहीं ज्यादा संवेदनशील थे और पेशेवर रुप से दक्ष भी। तब के फाॅरेस्ट अफसर जंगलों में घूमते थ ,अपने कैंप लगाते थेे। आजवन विभाग के जो डाकबंगले नजर आते हैं वह उन्ही फिरंगी अफसरों के बनाए हुए हैं जो हिंदुस्तान में सिर्फ राज करने आए थे। वे लोकसेवा के लिए नहीं आए थे। पर उनका नजरिया संवेदनशील और पेशेवर था। वे जानते थे कि फाॅरेस्ट अफसर का काम जंगल में रहना है। इसलिए वे लगातार जंगलों का दौरा करते थे। 1920 से लेकर 1928 के बीच अंग्रेज फाॅरेस्ट अफसर कई बार रुद्रप्रयाग के आदमखोर बाघ के शिकार के लिए जंगलों में घूमे थे। यहां तक गढ़वाल के कलक्टर ने भी 1928 में एक रात उस मचान में काटी जिसमें जिम कार्बेट बाघ के शिकार को बैठा था। क्या आज का कोई कलक्टर कभी रात को आदमखोर बाघ से प्रभावित गांवों में कभी गया है? क्या कभी किसी डीएफओ या वनसंरक्षक ने मचान पर बैठने की जरुरत समझी है? गत जनवरी में जब हाथी का कहर टूट रहा था तब वन्य जंतु संरक्षण विभाग के एक बड़े अफसर विदेशी मदद से मिली तीन आलीशान एसयूवी गाड़ियों सवार होकर ऋषिकेश आए और वहां पीड़ितों से मिलने के बजाय सपरिवार रिवर राफ्टिंग के लिए व्यासी चल दिए। रात को ज बवह वापस आ रहे थे तब वन विभाग के ऋषिकेश स्थित कर्मचारियों ने देहरादून जाने वाला यातायात रोका हुआ था। मैं नशे में धुत्त इन कर्मचारियों से जूझ रहा था और वे सारे के सारे अपना रौब झाड़ रहे थे तभी ये अफसर आए और सारा कानून हवा हो गया।सैल्यूट के साथ फौरन बैरियर खुल गया और साहब बहादुर शान से ठेंगा दिखाते हुए निकल गए। उनकी देखादेखी जनता भी निकल गई। ऐसे अफसर हैं वन विभाग में! ऐसे अफसरों के होते हुए क्या उम्मीद की जा सकती है? वन विभाग और राजाजी नेशनल पार्क के अफसरों के पास अभी यह जानकारी भी नहीं है कि राजाजी नेशनल पार्क में कितने हाथियों को पालने की क्षमता है? हाथियों की तादाद कितनी बढ़ रही है? बढ़े हुए हाथियों के भरण पोषण के लिए अतिरिक्त भोजन कहां से आएगा? खुद को जिम्मेदारी से बचाने के लिए फाॅरेस्ट के अफसरों ने इस रास्ते पर सात मोड़ तक फ्लाई ओवर बनाने का प्रस्ताव सरकार को भेज दिया है। यह सरासर गैर जिम्मेवाराना व्यवहार है। साफ है कि वन विभाग के अफसर अपनी गलतियां सरकार के सर पर थोपना चाहते हैं। क्या वन विभाग के अधिकारी गारंटी दे सकते हैं कि फ्लाई ओवर वाले इलाके के अलावा हाथी बाकी रास्ते पर नहीं आयेंगे।यह दिमागी दिवालियापन है। हाथियों की तादाद पर अंकुश लगाए बिना कोई भी उपाय कामयाब नहीं हो सकता।
जहिर है कि वन विभाग के अफसरों के इस रवैये पर सरकार ही अंकुश लगा सकती है। इसके तहत पहला काम तो यह होना चाहिए कि राजाजी पार्क में पिछले दस साल में खर्च किए गए बजट की सतर्कता जांच हो। हाथी द्वारा किसी व्यक्ति के मारे जाने पर जिम्मेदारी तय की जाय। इसके लिए डीएफओ और राजाजी पार्क के अफसरों को सीधे जिम्मेदार माना जाय । ऐसे अफसरों के खिलाफ गैर इरादन हत्या का मामला दर्ज किया जाय और इन अफसरों के फिर वन प्रबंधन से जुड़ा काम न दिया जाय। राजाजी नेशनल पार्क को आईएफएस के चंगुल से छुड़ाकर पेशेवर वन्यजंतु विशेषज्ञों के हवाले किया जाय। वनप्रबंधन को फाॅरेस्ट नौकरशाही के बजाय वन विशेषज्ञों के हवाले किया जाय। एक और मौत यह मांग कर रही है कि वनविभाग की संवेदनहीनता और भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाय। क्या सरकार इससे सबक लेगी या विलापों की ये चीत्कारें मोटी चमड़ी वाले तंत्र में गुम हो जायेंगी।

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