शुक्रवार, 23 मार्च 2012

The Anti Pahadi Face of G.D. Agrawal


                       सजिशों के जबड़ों में फंसा उत्तराखंड
एस0 राजेन टोडरिया
उत्तराखंड में पनबिजली प्रोजेक्टों का विरोध कर रहे जीडी अग्रवाल, उनके देहरादून स्थित चेले रवि चोपड़ा, गोविंदाचार्य, राजेंद्र सिंह और इनका साथ देने वाले हरिद्वार के बाबाओं में क्या समानता है? इनमें सबसे बड़ी समानता यह है कि ये सभी गैर पहाड़ी है। ये सभी यूपी में गंगा को पवित्र रखने की मांग नहीं करते। ये सभी मानते हैं कि गंगा के प्रवाह को सिर्फ ऋषिकेश तक ही अविरल रखा जाना चाहिए। ये सभी गंग नहर को तोड़कर गंगा के पुराने प्रवाह पथ शुरु किए जाने के पक्षधर नहीं हैं। ये सभी टिहरी बांध को जनहित में तोड़े जाने की मांग नहीं करते। ये सभी एसी व अन्य सुविधाओं के लिए बिजली का इस्तेमाल करते हैं। 
The Anti Pahadi Face of G.D. Agrawal
 
दरअसल उत्तराखंड जबसे यूपी से अलग हुआ है तबसे इसके खिलाफ विभिन्न स्तर पर साजिशें की जा रही हैं।यूपी की नौकरशाही इसके प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों व नौकरियों पर बिहारी और यूपी के लोगों का कब्जा कराने की साजिश में लिप्त है। उत्तराखंड के जल संसाधनों पर यूपी समेत मैदानी क्षेत्रवादियों और धंधेबाजों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। जीडी अग्रवाल की पूरी चैकड़ी और संघ परिवार का साझा गंगा अभियान भी इसी रणनीति का हिस्सा है। इन सबका लक्ष्य है कि किसी भी इस पहाड़ी राज्य को अपने जल संसाधनों का उपयोग करने से वंचित किया जाय और उत्तराखंड को ऐसा लूला लंगड़ा राज्य बनाया जाय जो केंद्र की सहायता के बिना अपने कर्मचारियों की  वेतन भी न दे सके। यह रणनीति जहां मैदानी राज्यों के शहरों, खेती व अन्य जरुरतों के लिए पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगा।यह इनका भू राजनीतिक प्रबंधन भी है। भू राजनीतिक प्रबंधन की इस अवधारणा के तहत सीमांत राज्यों या इलाकों कों पूरी तरह से केंद्र या भारतीय संघ पर आश्रित रखा जाता है । आरएसएस और उससे जुड़े संगठन,व्यक्ति सीमा पर रहने वाले समाजों को संदेह की नजर से देखते रहे हैं। उन्हे आरएसएस के प्रभाव में लाने के लिए तरह -तरह के राजनीतिक व धार्मिक अभियान भी उसके संगठन व संस्थायें चलाती रहती हैं। पहाड़ों में जमीन, प्रोजेक्टों की सुनियोजित खरीद  भी पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों की घुसपैठ कराने की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत हरिद्वार और उधम सिंह नगर को पहाड़ी विरोधी किले के रुप में तैयार किया जा रहा है।
उत्तराखंड के पहाड़ों में आरएसएस बहुत कोशिशें कर भी अपना प्रभाव नहीं बना पाया जबकि बड़ी संख्या में आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्य और आरएसएस से प्रछन्न रुप से जुड़े उसके पूर्व पदाधिकारी, सहानुभूति रखने वाले सेना व पुलिस के सेवा निव्त अधिकारी, ट्रस्ट, स्वैच्छिक संस्थायें चमोली,उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ के साथ-साथ पहाड़ के घनसाली से लेकर कपकोट तक सक्रिय रहे हैं। उ त्तराखं डमें जितने जल संसाधन और भू राजनीतिक स्थिति उसे एक महत्वपूर्ण राज्य बनाती हैं। वह चीन की सक्रिय सीमा के बेहद करीब है। उसके सीमाई इलाके एक जमाने में वामपंथियों के प्रभाव में रहे हैं। जल संसाधनों के उपयोग से उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था 14 हजार करोड़ रुपए की आय सिर्फ पनबिजली से ही जुटा सकती है। सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों के एक वर्ग विशेष को आशंका है कि चीन की सीमा पर आर्थिक नजरिये से आत्मनिर्भर और मजबूत राज्य कभी भी भारतीय संघ को आंखे दिखा सकता है। उस खतरे को ,खत्म करने के लिए उसके संसाधनों पर कब्जा करो। जीडी अग्रवाल और उनके समर्थक वृहद संघ परिवार का हिस्सा होने के नाते इस नीति पर चल रहे हैं। एक आईआईटी के इंजीनियर का स्वामी सानंद बन जाने की कहानी भी यही कहती है। क्योंकि विज्ञान के जरिये आप पनबिजली परियोजनाओं के औचित्य पर सवाल नहीं उठा सकते इसलिए संत बनने का स्वांग रचाईए और धर्म की पैकिंग में छुपाकर रखे छुरे उत्तराखंड की पीठ में घोंप दीजिए।
लेकिन उ त्तराखंड के सामने पनबिली प्रोजेक्ट उसके अस्तित्व का सवाल हैं। यदि वह बिजली से आय नहीं जुटाता तो उसकी अर्थयवस्था शराब के धंधे से आने वाले राजस्व पर आश्रित हो जाएगी। राज्य बनने के बाद शराब जिस तरह से पहाड़ की वर्तमान और भावी पीढ़ी को बरबाद कर रही है वह सबके सामने है। इसलिए राज्य के सामने आय के दो ही विकल्प हैं, शराब या पानी। लेकिन पनबिजली प्रोजेक्टों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों से निपटने के रास्ते खोजने होंगे। फिलहाल इतना तो किया ही जा सकता है कि -
 01- पहाड़ में निजी कंपनियों को जितनी भी परियोजनायें आवंटित हैं उन्हे फौरन रद्द किया जाय।
02- केंद्र सरकार को आवंटित सभी प्रोजेक्टों में 50 प्रतिशत इक्विटी उत्तराखंड की हो।
03- सभी परियोजनाओं में उस इलाके के ग्रामीणों को सामाजिक सुरक्षा के लिए लाभ का 25 प्रतिशत हिस्सा मिले।
04- पांच मेगावाट तक की योजनायें मूल निवासी उद्यमियों को मिलें और 10 मेगावाट तक परियोजनायें ग्राम पंचायतों या उस क्षेत्र की सहकारी संस्थाओं को मिलें।
05- पहाड़ में घरेलू आपूर्ति की बिजली सस्ती दरों पर मिलें।

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