Vision- The aim of Janpaksh is to promote social journalism.We believe that market forces are depleting the social role of the media and its credibility is regularly questioned.We are trying to maintain the humane face of media.
शुक्रवार, 19 अगस्त 2011
Janpaksh Report
अन्ना न भारत हैं और न गांधी वह मीडिया के उत्पाद हैं
राजेन टोडरिया
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ‘‘क्रेन बेदी’’ के नाम से मशहूर किरन बेदी आज भी इमरजेंसी पर मुग्ध लगती हैं। शायद इसीलिए उन्होने भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के सबसे बदनाम वाक्य को निकाला और अन्ना हजारे पर फिट कर दिया। जब हम उक्तियां और भाषा चुनते हैं तो वे सिर्फ हमारी शब्द चयन की सामर्थ्य की प्रतीक नहीं होते बल्कि हमारी मानसिकता और विचारधारा की प्रतीक भी होती हैं। इसलिए जब किरन बेदी यह कहती हैं कि अन्ना ही भारत हैं और भारत ही अन्ना है तो उनके भीतर आपातकाल के तानाशाह के चाटुकार दरबारी की प्रेतात्मा बोल रही होती है। देवकांत बरुआ के बदनाम वाक्य ‘‘इंदिरा इज इंडिया,इंडिया इज इंदिरा’’ को 36 साल बाद निकाल कर उसे अन्ना हजारे के लिए इस्तेमाल कर टीम अन्ना ने बता दिया है कि लोकतंत्र पर उनकी आस्था कितनी है। देश के उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के कुछेक लाख अन्ना समर्थकों को भले ही यह एक अच्छी तुलना लगे पर इस देश में विचार की राजनीति करने वाले लोग जानते हैं इस वाक्य में एक तानाशाह का अहंकार और चाटुकारिता का चरम दोनो बोल रहा है। भारत हजारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति का देश है। बड़ा से बड़ा रामभक्त भी यह नहीं कह सकता कि राम ही भारत है और भारत ही राम है गांधीजी के जीवित रहते और उनके निधन के बाद किसी गांधी भक्त ने यह नहीं कहा कि गांधी ही भारत हैं और भारत ही गांधी है। क्योंकि ये सारे लोग जानते थे भारत राम कृष्ण या गांधी से कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक है। किसी राष्ट्र के जीवन में महान से महान व्यक्ति भी एक कालखंड का प्रतिनिधि मात्र होता है। कोई भी राष्ट्र सिर्फ एक कालखंड या एक व्यक्ति से नहीं बनता। वह विभिन्न कालखंडों में आए महान लोगों से भी नहीं बनता बल्कि एक राष्ट्र वह उन असंख्य लोगों से बनता है जो कंदरा काल से लेकर अब तक की यात्रा में उस देश में पैदा हुए। उन करोड़ों-करोड़ साधारण लोगों के जीवन शैली,संस्कृति, रीति रिवाज,धर्म, सभ्यता, वास्तुशिल्प, संगीत, साहित्य समेत अनेक ज्ञात अज्ञात प्रभावों से भारतीय राष्ट्र निर्मित हुआ है। इस देश के तानेबाने में ये सारे आम लोग गुंथे हुए हैं। इसलिए हम जिसे भारत के नाम से जानते हैं वह एकांगी नहीं है बल्कि उसमें हर उस व्यक्ति की छाप है जिसने आदिकाल से लेकर अब तक या तो भारत में जन्म लिया या वह भारत में रहा। इसलिए अन्ना ही भारत और भारत ही अन्ना का जो अहंकारी स्टेटमेंट इस आंदोलन के बीच में आया है वह इस आंदोलन के भीतर मौजूद अधिनायकवाद का सबूत माना जाना चाहिए। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस आंदोलन के पास ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं है जो इसे भीतर से लोकतांत्रिक बनाता हो। पूरा आंदोलन पांच या सात लोगों की ऐसी स्वयंभू टीम अन्ना के पास है जो आंदोलन में शामिल लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। प्रदेशों और जिला स्तर पर भी इस आंदोलन में जो अराजकता और असमंजस है उससे भी यही लगता है कि इस आंदोलन का एक ही केंद्र और एक ही ध्रुव है और उसका बाकी ढॉंचा गायब है। जबकि किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन के भीतर ऊपर से लेकर ग्रास रुट स्तर तक एक लोकतांत्रिक ढांचा होता है जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार होता है। अन्ना हजारे यदि भारत नहीं हैं तो वह गांधी भी नहीं हो सकते। क्योंकि राजनीति विचार,दर्शन और चिंतन के नजरिये से वह गांधी के हजारवें हिस्से के बराबर भी नहीं हैं। गांधी राजनीतिक चिंतक ही नहीं थे बल्कि उनका अपना आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दर्शन ही नहीं था बल्कि प्रकृति से लेकर धर्म तक जीवन के हर क्षेत्र के प्रति उनका अपना मौलिक चिंतन और विचार था। गांधी सुदूर भविष्य में देख सकने वाले राजनेता थे। उन्होने विरोध के ऐसे अनूठे औजारों की खोज की जो एक सदी गुजरने के बावजूद पूरी दुनिया में विरोध व्यक्त करने के लोकप्रिय माध्यम बने हुए हैं। जबकि अन्ना हजारे का ताजा अवतार मौलिक नहीं है। दरअसल यह अरब और पश्चिम एशिया की जैसमीन क्रांति से प्रेरित है। उसे बेहद कुशलता के साथ निर्मित किया गया है। उनकी लार्जर दैन लाइफ इमेज पेशेवर विशेषज्ञों की ऐसी पैकेजिंग कला का करिश्मा है जिसे इंटरनेट और मीडिया ने बेहद शानदार तरीके से प्रस्तुत किया। वह देश के सारे चैनलों और अखबारों द्वारा 15 दिन तक लाखों शब्दों,अनगिनत फोटोग्राफों व विजुअल्स के संपादन कौशल और घंटो तक चलने वाली प्रबंधकीय और संपादकीय बैठकों की कड़ी मेहनत से तैयार ऐसे मीडिया उत्पाद हैं जिसकी रचना न्यूज रुम्स और एडीटिंग टेबिल्स पर हुई है। इसके ठीक विपरीत गांधी मीडिया के उत्पाद नहीं थे। उनकी छवि न्यूज रुम में नहीं बल्कि भारत के दरिद्र किसानों,दलितों और अधनंगे भारतीयों की श्रद्धा से तैयार हुई। असहयोग आंदोलन, दांडी मार्च से लेकर भारत छोड़ो तक अनगिनत घटनाओं ने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनाया। गांधी उस दरिद्र भारत को जानते थे जिसके साथ अपनी एकता दर्शाने के लिए गांधी ने अधनंगा रहने का निर्णय लिया। जबकि अन्ना की टीम उस भारत को जानती है जो फेसबुक और ट्विटर में बसता है। गांधी दलित होने का अर्थ भी जानते थे और मुस्लिम होने का अर्थ भी। अन्ना हजारे न दंतेवाड़ा जानते हैं और गुजरात के मुस्लिम संहार को पहचानते हैं इसलिए वे मोदी की तारीफ तो करते हैं पर उनकी मुस्लिम विरोधी हिंसा पर चुप रहते हैं। गुजरात दंगों के समय अन्ना की चुप्पी को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि अन्ना के फैन क्लब का एक बड़ा हिस्सा मोदी के प्रशंसक और मुस्लिम विरोधी आक्रामक हिंदूवादियों से भी बनता है। अन्ना हजारे दूसरे गांधी भी नहीं हो सकते क्योंकि उनमें इतना साहस नहीं है कि जस्टिस सावंत की जांच रिपोर्ट में वर्णित भ्रष्टाचार के आरोप को स्वीकार कर सकें। उनमें शांतिभूषण और प्रशांत भूषण परिवार पर लगने वाले आरोपों का तथ्यों के साथ जवाब नहीं दिया। न उन्होने देश की जनता को बताया है कि किरन बेदी के तीन एनजीओ को सरकार और कारपोरेट से अब तक कितना पैसा मिल चुका है? अन्ना के पास इस आरोप का भी जवाब नहीं है कि किरन बेदी के एनजीओ में बदनाम रहे एक पुलिस अफसर महत्वपूर्ण पद पर क्यों है? अन्ना हजारे यदि गांधीवादी हैं तो उन्हे आम लोगों को बताना चाहिए कि उनके ट्रस्ट में किस-किसने पैसा दिया है। उन्हे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि अरविंद केजरीवाल के एनजीओ ने इसी भ्रष्ट यूपीए सरकार से कितनी मदद ली है और भ्रष्ट कारपोरेट कंपनियों से कितनी मदद ली है। गांधी जब सत्य के साथ मेरे प्रयोग लिखते हैं तो वह पूराी दुनिया को अपनी सारी कमजोरियां बताते हैं। जबकि टीम अन्ना ने अपने नेता की कमजोरियां छुपाकर उसे दूसरे गांधी के रुप में पेश कर एक सुनियोजित इमेज बिल्डिंग कैंपेन चला रही है। इसलिए अन्ना को भारत और गांधी के प्रतीक के रुप में पेश करने की कोशिशें सस्ती लोकप्रियता और सतही राजनीतिक समझ से प्रेरित हैं। अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन जरुर चला रहे हैं पर वह जेपी भी नहीं हैं। वह सन् 2011 के वीपी सिंह हो सकते हैं और उनके इस आंदोलन की कोख में जो शिशु पल रहा है वह आरएसएस और भाजपा का है जो 2014 में एनडीए को सत्ता में लाने का जरिया बनेगा। संभव है कि इतिहास उनके आंदोलन को इसलिए भी याद करे कि उसी आंदोलन के कंधे पर बैठकर नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन बैठे।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें