सोमवार, 29 अगस्त 2011

The Real Face Of Indian Media

                      मीडिया मुगलों का खतरनाक खेल
                                          
एस0 राजेन टोडरिया


16 वीं सदी में जब मुगल आक्रांता बाबर ने हिंदुस्तान पर हमला किया तो उनकी आखिर और सबसे निर्णायक लड़ाई खनवा में राणा सांगा से हुई। बाबर के पास तब मात्र पांच हजार सैनिक थे और राणा सांगा के पास लगभग एक लाख सेना थी। युद्ध हुआ और जीत बाबर की हुई। इस लड़़ाई ने भारत के इतिहास को बदल दिया। पिछले दिनों देश के मीडिया मुगलों ने मध्ययुग के उस युद्ध की यादें ताजा कर दी हैं। रामलीला मैदान पर महज 50 हजार आंदोलनकारियों की भीड़ को 24 घंटे के नाटकीय प्रोपेगेंडा और कई पन्नों पर फैली आंदोलनों की प्रचारनुमा खबरों के बूते मीडिया महारथियों ने 120 करोड़ लोगों के देश पर टीआरपी का अपना एजेंडा थोप दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूद लोकप्रिय समर्थन की पीठ पर सवार होकर देश के मीडिया मुगलों साबित कर दिया कि वे टीवी दर्शकों या पाठकों के बूते हजारों लोगों को सड़क पर उतार ही नहीं सकते बल्कि देश की पूरी राजनीति को अपने न्यूज रूमों में बंधक बनाकर रख सकते हैं। उन्होने बताया कि टीवी कैमरों और चैनल आईडी से लैस उनकी घुड़सवार प्रचार पलटनें देश के प्रधानमंत्री को तीसरी सदी के पराजित पोरस में बदल सकते हैं। ऐसा दयनीय पोरस जो 21 वीं सदी के इन मीडिया सिकंदरों से यह भी नहीं बोल सकता कि उसके साथ वही व्यवहार किया जाय जो किसी देश के प्रधानमंत्री के साथ किया जाता है। अन्ना के आंदोलन की कामयाबी के जरिये देश के मीडिया मुगलों ने सफलता का वह स्वाद चख लिया है जिसे पत्रकारीय आचार संहिता की सारी किताबें सरासर वर्जित फल बताती रही हैं। आंदोलन पैदा करने और सरकार व संसद को ही नहीं बल्कि देश की पूरी राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचाने के रोमांच से रूबरू हो चुका भारतीय मीडिया के हाथ में वह अलोकतांत्रिक और भस्मासुरी ताकत लग चुकी है जिसके जरिये कभी भी तख्तापलट जैसे हालात पैदा किए जा सकते हैं। कोई भी कोई अंधराष्ट्रवादी या सांप्रदायिक उन्मादी या जातिवादी फासिस्ट संगठन या व्यक्ति मीडिया के कंधे पर चढ़कर संसद,न्यायपालिका और कार्यपालिका को ठीक उसी तरह चोर,भ्रष्ट और गद्दार करार दे सकता है जैसे किरन बेदी या ओमपुरी ने रामलीला मैदान के अपने भाषणों बताया और देश के मीडिया ने चटखारे लेते हुए उनके भाषणों को लाइव प्रसारित भी किया। कारपोरेट स्वार्थों से संचालित होने वाले स्वछंद मीडिया के पास ऐसा अमर्यादित खेल खेलने की ताकत का आना देश की एकता-अखंडता ही नहीं बल्कि लोकतांत्रिक स्थिरता के लिए भी खतरनाक है।अन्ना प्रकरण ने कई सच्चाईयों पर बिछी धूल की परतों को साफ किया है। इस घटना के जरिये देश ने मनमोहन सिंह को एक दयनीय और निरीह प्रधानमंत्री के रुप में देखा तो यह भी देखा कि देश के भाग्य की चाबी मीडिया और मध्यवर्ग के हाथों में आ गई है। यह बाजारवादी ताकतों और व्यवस्था का कमाल है कि जो उपभोक्ता वस्तुओं का जितना बड़ा खरीददार है उसकी आवाज मीडिया के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है। इस वाकये ने यह चेतावनी दे दी है कि कारपोरेट मीडिया अब ऐसा भस्मासुर है जो बिना किसी बहस के अपना एजेंडा ही नहीं बल्कि अपनी प्राथमिकतायें भी देश पर थोप सकता है। पत्रकारिता के एक छात्र के नाते हम सब जिंदगी भर आचार संहिता की उस किताब को पढ़ते रहे हैं जो बताती है कि मीडिया को जजमेंट नहीं देना चाहिए। पत्रकारीय तटस्थता और निष्पक्षता का अर्थ एक खबर के सारे पहलू लोगों तक पहंुचाने की जिम्मेदारी और सच के प्रति पत्रकार की जवाबदेही है। हममें से कई लोग पत्रकारिता को जिस पेशेवर ईमानदारी के लिए प्यार करते रहे है उसका एक गुण यह भी है कि पत्रकारिता तथ्य और कथ्य के बीच का नाजुक संतुलन बनाए रखने की कला है। यानी कि कथ्य को उतना ही वाचाल या खामोश होना चाहिए जितना कि उपलब्ध तथ्य। हम जिसे पाठक या दर्शक कहते हैं वह दरअसल खबरों का उपभोक्ता है जो अपना समय और पैसा इसलिए खर्च करता है ताकि उसे पता चल सके कि उसके इर्दगिर्द क्या हो रहा है। अखबारों की खरीद और न्यूज चैनलों को देखे जाने के पीछे मुख्य कारण खबरें ही हैं। यदि आप खबरों के पाठक या दर्शकों की तादाद की तुलना संपादकीय स्तंभ पढ़ने और टीवी की खबरिया बहसों के दर्शकों की संख्या से करें तो साफ जाहिर हो जाएगा कि खबरों के 80 प्रतिशत से ज्यादा पाठक या दर्शक बहसों या संपादकीय स्तंभों के दर्शक या पाठक नहीं हैं। लेकिन खतरनाक बात यह है कि भारतीय मीडिया में खबर और विचार की लक्ष्मण रेखायें गड्मड् हो गई हैं। यह बीमारी न्यूज चैनलों में सर्वाधिक है जहां खबर में ही चैनल का एजेंडा भी मिला दिया जाता है। यह अनैतिक और गैर पत्रकारीय कृत्य है। क्योंकि खबर एक घटना का तटस्थ ब्यौरा है जो पत्रकार या मीडिया स्वामियों के व्यक्तिगत आग्रहों,दुराग्रहों और विचारों से स्वतंत्र है। न्यूज चैनलों और अखबारों का कर्तव्य है कि वे अपने उपभोक्ता तक वह सामग्री पहुंचायें जिसके लिए उसने दाम चुकाए हैं। यदि चैनल और अखबार उसमें अपना एजेंडे की मिलावट करते हैं तो यह उसी तरह का का कृत्य है जैसा नकली पनीर या दूध बेचना। अपराध के नजरिये से यह नकली और मिलावटी सामान बेचने से ज्यादा गंभीर अपराध है। क्योंकि नकली खाद्य पदाथ्र बेचने से तो कुछ व्यक्तियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ता है पर एक मिलावटी खबर पूरे समाज को ही नहीं बल्कि जनमत को भी भ्रमित कर सकती है। इसके सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक असर पीढ़ियों तक जाते हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण 1991-2001 के दौर में अखबारों और चैनलों द्वारा उदारीकरण के पक्ष में बनाया गया माहौल है जिसके चलते सरकारों ने सामाजिक सुरक्षा कवर के बिना ही निजीकरण और बाजारीकरण का अनुसरण किया। फलतः देश में एक स्थायी असंतुष्ट मध्यवर्ग और सशस्त्र क्रांति पर आमादा ठेठ गरीब वर्ग तैयार हो गया है। इसीलिए प्रख्यात पत्रकार एसपी सिंह से जब पूछा गया कि पत्रकार को क्या नहीं करना चाहिए तब उन्होने तपाक से कहा था कि पत्रकार को सरकार नहीं बनानी चाहिए। इसका साफ अर्थ है कि लोकतंत्र में सरकार बनाना जनता का काम है। यह मीडिया का काम नहीं है। मीडिया का काम है कि वह तथ्य पेश करे और फैसला लोगों पर छोड़ दे। उसका काम आंदोलनों के लिए लोगों को उकसाना नहीं है। यदि वह किसी खास आंदोलन के पक्ष में है तो उसे अपने संपादकीय स्तंभों और टीवी बहसों में खुद को एक पक्ष बताना होगा। वह अपने एजेंडे के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए खबरों को शिखंडी की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता। मीडिया की ईमानदारी इसमें है कि वह स्पष्ट रुप से अपनी पक्षधरता स्वीकार करें ताकि आम पाठक या दर्शक के सामने अखबार या चैनल को रिजेक्ट या स्वीकार करने की आजादी हो। उसकी नैतिकता और जिम्मेदारी है कि वह खबरों के बीच वैधानिक चेतावनी की तरह पाठकों या दर्शकों को आगाह करे कि ये विचार अखबार या चैनल के हैं। अन्ना प्रकरण में एक और बात साफ हुई है। अखबारों और न्यूज चैनलों ने एक सिंडीकेट बनाकर इस पूरे वाकये को चौबीसों घंटे दिखाया। यह स्वतंत्र और खोजी पत्रकारिता के लिए चुनौती है कि वह सारे न्यूज चैनलों और अखबारों के बीच एक खास मुद्दे के लिए बने इस गठबंधन की हकीकत और कारणों का पता लगाए। कारपोरेट मीडिया की इस एकजुटता के पीछे मौजूद कारण क्या भ्रष्टाचार विरोधी पवित्र भावना ही थी या इसके पीछे कोई गुप्त एजेंडा था। यह जानना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि कारपोरेट मीडिया भविष्य में अपने किसी स्वार्थ के लिए ऐसा अभियान चलाकर समाज के सामान्य विवेक को प्रभावित कर राजनीतिक स्थिरता को खतरे में डाल सकता है।मीडिया को खबरपालिका कहने वाले लोग उसे न्यायपालिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह अपना फैसला सुनाने वाली संस्था के रुप में समझते रहे हैं। जबकि पहली तीनों संस्थाओं को फैसला करने का अधिकार संविधान ने दिया है जबकि मीडिया संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की आजादी की मर्यादा के भीतर काम करने वाला एक हित समूह है। यानी कि मीडिया ऐसी संस्था नहीं है जो हित निरपेक्ष हो बल्कि वह निश्चित लोगों या निजी संस्थानों के हितों से संचालित समूह है। इसलिए उसके विचार तटस्थ नहीं हैं बल्कि उन स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मीडिया संचालकों के हैं। पत्रकारीय तटस्थता और निष्पक्षता का ढोंग दरअसल कारपोरेट मीडिया की उपज है। कारपोरेट सेक्टर की दलाली से पूरी तरह काले हुए अपने चेहरे को छुपाने के लिए मुख्यधारा के मीडिया ने तटस्थता और निष्पक्षता का सफेद लबादा ओढ़ा। लेकिन अन्ना हजारे के मामले में भारतीय मीडिया ने अपने निष्पक्षता के इस लबादे को उतार फेंका है। लेकिन यह पहली बार नहीं हुआ है। राममंदिर आंदोलन, आरक्षण विरोधी सवर्ण आंदोलन, गुजरात में मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिकता, मुंबई हमलों के बाद मीडिया का युद्धोन्माद, दिल्ली में एम्स के छात्रों का आरक्षण विरोधी आंदोलन समेत कई मौकों पर भारतीय मीडिया ने अपनी जातिवादी और सांप्रदायिक पक्षधरता का खुलकर इजहार किया। यही नहीं भारतीय मीडिया की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि निष्पक्षता का मोह त्यागकर मायावती,काशीराम,लालू यादव,मुलायम सिंह यादव, वीपी सिंह समेत दलित और पिछड़े नेताओं के खिलाफ अपनी जातीय घृणा को छुपाने की कोशिश नहीं की। इतना जरुर है कि मुलायम,लालू और मायावती के घोटालों की चर्चा ने इस जातिवादी घृणा को तर्कसंगत ठहरा दिया। ये सारे मीडिया अभियान भारतीय मीडिया के भीतर की सांप्रदायिक और जातिगत बुनावट को ही जाहिर नहीं करते बल्कि भारतीय कारपोरेट और उदारीकरण के बाद मालामाल हुए नवधनिक वर्ग के दलित,मुस्लिम और पिछड़ा विरोधी चरित्र को भी उजागर करते हैं। लेकिन मीडिया की मुख्यधारा की पक्षधरता सिर्फ जातीय और सांप्रदायिक आग्रहों तक सीमित नहीं है बल्कि यह गरीब विरोधी भी है। अभी पांच साल पहले की बात है कि देश के एक बड़े अखबार के प्रबंधन ने बाकायदा अपने सभी संस्करणों के संपादकों को निर्देश जारी किए कि अखबार में सर्दियों में अलाव सेंकते हुए गरीबों के फोटो न छापे जांय, गलियों में क्रिकेट खेलते बच्चों की तस्वीरें न हों। उत्तर भारत के एक प्रमुख अखबार के एक प्रतापी समूूह संपादक ने वरिष्ठ संवाददाताओं और स्थानीय संपादकों की बैठक में साफ कहा कि वह दस हजार रुपल्ली कमाने वाले लोगों को अपना अखबार नहीं बेचना चाहते। यह संपादक महोदय आज भी देश के एक बड़े अखबार के मुख्य संपादक हैं। गरीबों के प्रति यह हिकारत न व्यक्तिगत है और न अपवाद। बल्कि सच तो यह है कि यह भारतीय मीडिया का गुप्त एजेंडा है जिसके तहत गरीबी और गरीब दोनों को मीडिया की खबरों से बाहर धकेल दिया गया है। मीडिया ने अपना ध्यान या तो कारपोरेट,सिनेमा या व्यापार जगत की सेलिब्रिटीज पर फोकस कर दिया है या उस वर्ग पर जो उपभोक्ता वस्तुओं का खरीददार है। क्योंकि ये दोनों ही कारपोरेट की टारगेट क्लास हैं। इसलिए उनका विज्ञापन भी उसी मीडिया सेगमेंट को ज्यादा मिलता है जिसकी पहुंच मध्य और उच्च वर्ग में बेहतर है। कोई भी न्यूज चैनल और अखबार गरीबों और मजलूमों का माध्यम कहलाना पसंद नहीं करता। इसी गरीब विरोधी नजरिये के चलते मीडिया या तो बुनियादी बदलाव के आंदोलनों की उपेक्षा कर देता है या फिर लालगढ़ की तरह उनके खिलाफ जबरदस्त माहौल बनाता है ताकि पुलिसिया दमन का औचित्य साबित हो सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शहर और मध्यवर्ग केंद्रित मीडिया के ऐसे अभियानों से गरीबों और उत्पीड़ित समाजों का लोकतांत्रिक व्यवस्था से अलगाव तेज होगा। क्योंकि कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका पहले ही गरीबों को न्याय देने में विफल रही हैं। अब मीडिया द्वारा भी सीधे आर्थिक मुद्दों के बजाय शहरी कुलीन व मध्यवर्ग के राजनीतिक सुधारवादी एजेंडे पर पूरा ध्यान केंद्रित कर देने से गरीबों के मूल सवाल पृष्ठभूमि में चले गए हैं। जमीन के पुनर्वितरण, महंगाई, बेरोजगारी से लेकर कारपोरेट कंपनियों और व्यापारियों द्वारा किए जा रहे शोषण समेत सारे आर्थिक सवालों को नेपथ्य में धकेलकर मीडिया देश के 80 प्रतिशत गरीबों पर जो कारपोरेट एजेंडा थोप रहा है वह खतरनाक है। यह आज भले ही कल्पना लगे पर इस वाकये ने साबित कर दिया है कि किसी नाजुक राजनीतिक समय में भारतीय मीडिया के कंधे पर बैठकर कभी भी कोई हिटलर देश पर काबिज हो सकता है। क्योंकि इस घटना ने साफ कर दिया है कि मीडिया के पास मध्यवर्ग में मास हिस्टीरिया पैदा करने की विनाशकारी ताकत है। यह इसलिए भी खतरनाक है कि यही मीडिया मोदी और आडवाणी के मुस्लिम विरोधी उन्माद से लेकर सवर्णों के आरक्षण विरोधी उन्माद पर मुग्ध रहा है।

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