यह सवर्णवादी उन्माद है
एस0राजेन टोडरिया
मेरे कई अधिकारी मित्र पिछले 15 दिनों से मुझे पूछ रहे हैं कि प्रमोशन पर में आरक्षण पर मेरे क्या विचार हैं। इनमें सें कईयों ने मुझसे कहा कि उत्तराखंड जनमंच को इस आरक्षण विरोधी आंदोलन की कमान संभालनी चाहिए। मजेदार बात ये है कि कांग्रेस और भाजपा को वोट देने वाले मेरे ये मित्र कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से यह आग्रह नहीं करते कि वे प्रमोशन में आरक्षण विरोधी आंदोलन में उतरें। क्योंकि ये सब जानते हैं कि
ये दोनों प्रमुख पार्टियां आरक्षण के विरोध में नहीं उतर सकती। सवर्ण नेताओं आकंठ भरे ये दोनों दल चरित्र में भले ही सवर्णवादी हों पर बावजूद इसके वे दलित वोट खोने का जोखिम या दलित विरोधी होने का खतरा नहीं उठा सकते। लिहाजा सवर्णवाद का झंडा उठाने के लिए इन्हे जनमंच या यूकेडी की जरुरत है। वोट तो कांग्रेस और बीजेपी को देंगे और दलित विरोध के लिए क्षेत्रीय संगठन या दलों से कहेंगे। यूकेडी ने तो बाकायदा आरक्षण विरोध का झंडा थाम भी लिया।
उत्तराखंड में आजकल राजनीतिक दृष्टिहीनता का दौर है। जितनी दृष्टिहीनता दलीय राजनीति में है उतनी कर्मचारी संगठनों में भी। प्रमोशन में आरक्षण का मसला राज्य का है ही नहीं। यह कानूनी रुप से केंद्र सरकार को तय करना है कि प्रमोशन में आरक्षण जारी रहे या नहीं। दो तिहाई वोटों से इसे पारित होना है इसलिए बीजेपी के सहयोग के बिना यह संभव नहीं है। केंद्र ने यदि प्रमोशन में आरक्षण का विधेयक पारित कर दिया तो राज्य में आंदोलन खुद ही निरर्थक हो जाएगा। यूपी में मुलायम इसलिए प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वह जानते हैं कि उन्हे यूपी के दलित वोट तो नहीं मिलने हैं इसलिए दलित विरोध कर दलित विरोधी सवर्णों का वोट पक्का कर कांग्रेस और बीजेपी के जनाधार में सेंधमारी कर ली जाय। बाकी देश में कहीं भी कर्मचारी आंदोलन नहीं हो रहा है, केंद्र सरकार के कर्मचारी संगठन भी आंदोलन नहीं कर रहे हैं। क्योंकि सभी जानते हैं कि वर्तमान राजनीतिक हालातों में इस मुद्दे पर कोई तार्किक बहस संभव नहीं है और सरकार इसे पारित कराएगी ही। यइि इसमें संशोधन कर पिछड़ा वर्ग भी जोड़ दिया गया तो मुलायम भी इसका समर्थन करेंगे। मुलायम इस अवसर का इस्तेमाल पिछड़ा वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण दिलाने के लिए करना चाहते हैं। देश की जो सामाजिक संरचना है उसमें कोई भी दल सवर्ण राजनीति नहीं कर सकता। उसे बहुसंख्यक ओबीसी और दलित की ही राजनीति करनी होगी। लोकतंत्र में सरकारें वोट से चुनी जाती हैं । उत्तराखंड के कर्मचारी संगठनों का नेतृत्व यदि इतनी साधारण बात नहीं समझ सकता और पूरे राज्य को एक निरर्थक कवायद के लिए आंदोलन में झोंकता है तो यह अनुचित है। क्योंकि लोकसभा में प्रस्ताव पारित होने के बाद ये सारी कवायद निरर्थक होने वाली है।लेकिन इस आंदोलन ने राज्य में जिस सवर्ण बैकलैश को जन्म दिया है वह खतरनाक है। सवर्णवाद का यह पुनरोत्थान अपने चरित्र में दलित विरोधी है और दलित विरोधी प्रचार पर टिका हुआ है। यह मात्र .02 प्रतिशत लोगों के हितों के लिए उत्तराखंड की सामाजिक एकता को खंडित करता है।
उत्तराखंड में मात्र 1.5 लाख सरकारी कर्मचारी-शिक्षक हैं। इस वर्ग के बहुसंख्यक हिस्से के लिए प्रमोशन का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि इनके लिए प्रमोशन के अवसर ही नहीं सृजित किए गए। प्रमोशन में आरक्षण से सीधे प्रभावित होने वाले कर्मियों की संख्या मुश्किल से कुल कर्मियों की संख्या का बीस प्रतिशत होगी।इनमें से भी अधिकांश अधिकारी हैं। एक करोड़ की आबादी वाले राज्य में बीस हजार लोगों के लिए पूरे राज्य में सरकारी कामकाज ठप करने को कोई औचित्य है भी क्या? वह भी तब जब केंद्र को कानून लाना ही है। जहां तक जाति से सरकारी कामकाज की गुणवत्ता पर असर पड़ने वाली बहुप्रचारित धारणा का सवाल है वह भी मात्र एक धारणा ही है न कि तथ्य। उत्तराखंड के गठन के बाद अभी तक छह मुख्यमंत्री बने हैं। जिनमें पांच कुलीन ब्राह्मण और एक ठाकुर हैं। आधा दर्जन सवर्ण मुख्यमंत्रियों के बावजूद उ त्तराखंड की आज जो हालत है वह सबके सामने है। कोई नहीं कह सकता कि इन छहों सज्जनों ने राज्य में शासन की गुणवत्ता या क्वालिटी आफ गवर्नेंस को लेकर कोई उम्मीद जगाई हो। उल्टे यूपी के जमाने के गवर्नेंस को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। यही नहीं राज्य में एक को छोड़कर बाकी सारे मुख्यसचिव सवर्ण ही रहे, प्रमुख सचिवों में भी 90 प्रतिशत सवर्ण ही रहे, विभागीय निदेशकों,महानिदेशकों में भी बहुसंख्यक सवर्ण ही रहे हैं।केंद्र सरकार में भी उच्च पदों पर पूरी तरह से सवर्ण वर्चस्व कायम है। सरकारी तंत्र में इस सवर्ण बाहुल्यता के बावजूद केंद्र और राज्य में गवर्नेंस का बुरा हाल है। इसलिए प्रमोशन में आरक्षण के कारण कार्यक्षमता में कमी आने का जो तर्क आजकल दिया जा रहा है वह निराधार है। शासन की गुणवत्ता और सरकारी सेवाओं में आई गिरावट के लिए प्रमोशन में आरक्षण नहीं बल्कि भ्रष्टाचार जिम्मेदार है। मजेदार बात यह है कि भ्रष्टाचार के इस विषवृक्ष को पल्लवित और पुष्पित करने में सवर्ण और अवर्ण दोनों का ही योगदान रहा है।
दूसरी ओर दलित वर्ग में प्रमोशन में आरक्षण न मिल पाने को सवर्णों के अन्याय के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। प्रमोशन के आरक्षण से लाभान्वित होने वाला तबका दलितों का छोटा सा हिस्सा है। इसमें भी अधिकांश दलित अधिकारियों का गरीब और असहाय दलितों से कोई लेना देना नहीं है। उत्तराखंड के अधिकांश दलित अफसर अपने परिवारों के कल्याण तक सीमित हैं । उन्हे अपने वर्ग के के बाकी लोगों के उत्थान में कोई रुचि नहीं है। इसलिए सरकारी नौकरियों में स्थान न पा सकने वाले दलित का प्रमोशन में आरक्षण से कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि उसे तो अभी आरक्षण का ही लाभ नहीं मिला। जाहिर है कि दोनों ओर जो प्रचार किया जा रहा है उसका शेष समाज से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में चल रहे विषाक्त प्रचार से समाज में जातिगत विभाजन की रेखायें खिंच गई हैं। हड़ताल खत्म हो जाएगी पर इसके निशान हर दफ्तर ,हर जगह दिखाई देंगे। प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ चल रहा आंदोलन सवर्णवादी उन्माद का शिकार है। समाज में आरक्षण पर बहस सवर्णवादी हुए बगैर भी हो सकती है। पहाड़ के शिल्पकारों के साथ जो अन्याय हुआ है उसकी भरपाई करने में कई पीढ़ियां लग जायेंगी।क्योंकि अभी तो पहाड़ के शिल्पकारों तक हम ढ़ंग की शिक्षा,बेहतर जीवन ही नहीं पहुंचा पाए हैं। हम उन्हे उनका वह सम्मान भी नहीं लौटा पाए हैं जो हमने सदियों पहले उन्हे दास बनाकर उनसे छीना था। हम पहाड़ के इन संगीतकारों, शिल्पकारों की सृजनात्मक प्रतिभा और हुनर की कद्र करने की तमीज तक नहीं सीख पाए हैं। हमने उनसे जो छीना है उसे लौटाए बगैर हम उनके साथ किए गए अन्याय का हिसाब बराबर नहीं कर सकते।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें