शनिवार, 28 जुलाई 2012

The Hope of Political Alternative aborted by Anna Hazre

                      वैकल्पिक राजनीति की संभावना का गर्भपात 


 राजेन टोडरिया

अन्ना के मंच पर रामदेव और उनकी भक्त मंडली आई और टीम अन्ना को उनकी औकात बताने वाली बाइट देकर चले गए। आज भी खबरों में भीड़ ही रही। टीम अन्ना को भले ही पता न रहा हो लेकिन अन्ना का जादू पिछले साल से ही कम होने लगा था। गलत रणनीति और आम लोगों को मूर्ख समझने का जो अहंकार महानगर में रहने वाले अभिजात्यों को रहता है टीम अन्ना उससे बहुत गहरे से पीड़ित है। दूसरा उनका भरोसा संचार प्रौद्योगिकी की तकनीक पर ज्यादा है। यह मिस्त्र की जैसमीन क्रांति से उत्साहित जंतर मंतर को तहरीर चैक बनाने का सपना देख रहे आत्ममुग्ध लोगों का एक जमावड़ा है। मीडिया के अथक प्रयासों और चैबीसों घंटे के प्रसारण से पिछले साल काफी लोग लोकपाल के मुद्दे पर सड़क पर आ गए थे। लोगों को दैनिक जीवन में भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई प्रभावी तंत्र चाहिए था। होना लेकिन अन्ना हजार ने हिसार उपचुनाव में दखल देकर खुद को एक राजनीतिक पक्ष बना लिया। वहां से इस आंदोलन का पतन शुरु हो गया था। जबकि हिसार में सबसे ज्यादा ईमानदार प्रत्याशी कांग्रेस का ही था। टीम अन्ना ने जिस तरह से प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस के लोगों पर व्यक्तिगत हमले शुरु किए उससे उन्हे नुकसान ही हुआ। कांग्रेस और भाजपा या देश के अन्य दल कैसे हैं, यह पूरे देश की जनता जानती है और फिर भी वह उन्ही लोगों में अपना नेता चुनती है। यह इतना बड़ा मतदाता समूह है जिसके बारे में टीम अन्ना को भी मालुम नहीं। देश के लोग जानते हैं कि उनका वोट कहां और किसलिए जाना है। इस देश का अभिजात्य वर्ग भले ही विलाप करता रहे कि ये नासमझ लोग वोट सही ढ़ंग से नहीं देते। लेकिन यह लोकतंत्र उन्ही मामूली और नासमझ लोगों के कारण बचा है वरना मध्यवर्ग तो कभी बाबरी मस्जिद तो कभी सिख विरोधी सांप्रदायिकता का समर्थन कर अपना वोट देता रहा है।

The Decline of Anna Hazare



टीम अन्ना के पिछले आंदोलन को आरएसएस का खुला समर्थन था। आरएसएस की योजना सन् 2014 में नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाना है। उसके लिए उसने पिछले साल अन्ना को सपोर्ट किया और अन्ना के जरिये कांग्रेस को भ्रष्ट नेताओं का जमावड़ा के रुप में प्रचारित कर दिया। भारत का मीडिया और कारपोरेट भी अब नरेंद्र मोदी के साथ हो गया है। शाहिद सिद्दकी जैसा पुरानी सपाई भी नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों में शामिल होनेे से यह साफ है। आरएसएस के लिए अन्ना की भूमिका निछले साल ही खत्म हो गई थी। आरएसएस ने अब अपनी पूरी ताकत रामदेव के साथ लगा दी है। इसलिए इस साल टीम अन्ना का संघी आधार खिसक गया है। टीम अन्ना चूंकि मीडिया का बनाया हुआ शेर है । उसने अपना सांगठनिक ढ़ांचा बनाने की कोई कोशिश नहीं की उल्टे संगठन के भीतर जो थोड़ा बहुत लोकतंत्र था भी उसे केजरीवाल का वर्चस्व स्थापित करने के चक्कर में खत्म कर दिया। व्यक्तिवादी संगठनों का हश्र इसी तरह होता है। क्योंकि वे व्यक्तिपूजा पर ही निर्भर होते हैं। जिस व्यक्ति की जितनी मास अपील होती है उसके संगठन का उतना ही आधार होता है। जो लोग इंदिरा गांधी या मायावती या मुलायम के व्यक्तिवाद की कामयाबियां इस संदर्भ में गिनाते हैें वे भूल जाते हैं कि इन सभी लोगों के पीछे गांव-गांव तक मौजूद एक संगठन था। जबकि अन्ना हजारे की मास अपील की प्रतिमा को सिर्फ मीडिया ने ही गढ़ा। इस मास अपील की जड़ें जमीन पर न होकर उस मध्यवर्ग में हैं जो खाते पीते रहने के साथ अपनी सुविधा के हिसाब से कभी-कभार आंदोलन वगैरह भी कर लेता है। टीम अन्ना की समस्या यह है कि इस मध्यवर्ग का हिंदूवादी हिस्सा आरएसएस के साथ है।टीम अन्ना के साथ भले ही प्रशांत भूषण जैसे नक्सलवादी समर्थक धुर वामपंथी हों पर वामपंथ का समर्थन उनके साथ नहीं है। टीम अन्ना के साथ जो मध्यवर्ग है उसमें एनजीओ के पेड कार्यकर्ता और नरम हिंदुत्व वाला मध्यवर्ग ही बचा है। मीडिया ने अपने न्यूज रुम में अन्ना का वह प्रभामंडल तैयार किया जिससे वह मध्यवर्ग का नायक बन सकंे। यह हुआ भी पर खाते पीते मध्यवर्ग के भरोसे देश में परिवर्तन संभव नहीं है। टीम अन्ना का दुर्भाग्य यह है कि उसके पास पूर्व नौकरशाह और एनजीओं चलाने वाले जबरदस्त बुद्धिजीवी तो हैं पर राजनीति की बुनियादी समझ रखने वाले लोग नहीं हैं। इसलिए टीम अन्ना हर न्यूज चैनल पर तो छाई रही पर आज उसके पास देश में सारे महानगरों में भी हजार ऐसे कार्यकर्ता नहीं हैं जो छह महीने-साल भर जेल में रहने का जोखिम उठा सकें। एनजीओ में नौकरी करने वाले लोगों से आंदोलन नहीं चलते और न छुट्टी के दिन पिकनिक मनाने के अंदाज में जंतरमंतर पर जुटने वाले लोगों के भरोसे लंबी और जटिल लड़ाईयां लड़ी जा सकती हैं। 
टीम अन्ना आंदोलन और उसकी राजनीति और रणनीति विज्ञान के बारे में अनाड़ी साबित हुई है। हालांकि टीम अन्ना के वरिष्ठ मेंबर प्रशांत भूषण खुद को नक्सलवादियों का स्वयंभू रहनुमा मानते हैं पर ऐसा लगता है कि उन्होने राजनीतिक रणनीति के अद्वितीय विशेषज्ञ माओ को नहीं पढ़ा है। ‘‘ दो कदम आगे,एक कदम पीछे’’ की माओं की रणनीति को उन्हे पढ़ा होता तो वे सरकारी लोकपाल के विधेयक पर राजी हो गए होते। सरकारी लोकपाल पर लोगों का भरोसा उठने के बाद फिर से लोकपाल में नए सुधार करने का आंदोलन छेड़ते। लेकिन अविवेकपूर्ण निर्णय और टीवी पर कुछ भी बोल देने के रोग से ग्रस्त टीम अन्ना ने पिछले एक साल में नेताओं से भी बुरा आचरण किया है। इसीलिए उसकी साख इस समय सबसे निचले पायदान पर है। इसका लाभ रामदेव को मिला है। अब मैदान में वह अकेले खिलाड़ी रहेंगे। आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक रहे रामदेव की समझ में आ गया है कि चुनावी राजनीति में वह कामयाब नहीं हो सकते। इसलिए उन्होने आरएएस से हाथ मिला लिया है। अब वह भाजपा को सत्ता में लाने के लिए आरएसएस के सारथी बनेंगे। रामदेव के लिए अब भाजपा की एकमात्र उम्मीद की किरण है। क्योंकि उन्हे मालुम है कि यदि कांग्रेस फिर से रिपीट हुई तो वह उनके धंधे समेत उनको निपटा देगी। इसलिए आरएसएस ने पूरी ताकत रामदेव के आंदोलन में लगा दी है। आरएसएस के स्वयंसेवक और भाजपा के कार्यकर्ता अब रामदेव के कार्यक्रमों में जुटकर भीड़ जुटायेंगे और सत्ता परिवर्तन के लिए माहौल तैयार करेंगे। आरएसएस के प्रचार विभाग सोशल मीडिया से लेकर एसएमएस, मुख्यधारा के मीडिया तक हर दिन प्रचार सामग्री की बमबारी कर नरेंद्र मोदी के लिए राजमार्ग तैयार कर रहा है। इसे तैयार करने का मुख्य ठेका रामदेव के पास है और इसका पेटी कांट्रेक्ट टीम अन्ना के पास है। अमेरिकी रणनीति से प्रेरित आरएसएस की इस कार्पेट बमबारी का मकसद सोनिया, राहुल और मनमोहन को निशाना बनाकर इन तीनों की छवि को चुनाव से पहले ही नष्ट करना है। ताकि चुनावी युद्ध एक तरफा हो और भाजपा को नीतिश की जरुरत ही न रहे। दुर्भाग्य यह है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमट चुकी इस लड़ाई में भ्रष्टाचार का सवाल गुम हो गया है। इसके लिए टीम अन्ना ही सर्वाधिक जिम्मेदार है जिसने अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण देश में वैकल्पिक राजनीति की संभावना का गर्भपात कर दिया है।

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