रहबर की जगह रहजन बना उत्तराखंड का मीडिया
एस0राजेन टोडरिया
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस राज्य की पत्रकारिता में समेत जो दुर्गुण आए हैं उससे आम लोगो के बीच पत्रकारों की साख में भारी कमी आई है। इससे ईमानदार पत्रकारों पर समाजविरोधी तत्वों के हमले का अंदेशा बढ़ा है। साख के इस सवाल के कई कारण हैं। उत्तराखंड का मीडिया हर मुख्यमंत्री की चरण वंदना करता रहा है। पिछले 12 सालों में मीडिया ने इस चरण वंदना के जरिये लगभग 250 करोड़ रु0 कमाए। यदि इसमें निजी शिक्षण संस्थानों,अस्पतालों की लूट पर चुप रहने की कीमत और चुनाव में की गई वसूली भी शामिल की जाय तो 25000 करोड़ रु0 के कर्ज में डूबे इस गरीब राज्य से मीडिया ने 550 करोड़ रु0 की रंगदारी वसूल की है। इनमें सर्वाधिक पैसा उन अखबारों और चैनलों ने कमाए जिन्होने पत्रकारिता की तमाम मर्यादाओं और आचार संहिताओं को ताक पर रखकर सत्ताधारी दल के मुखिया के चरण चाटकर बताया कि वे पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
इसी का परिणाम है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अब चुनाव समीक्षायें नहीं छपती बल्कि पेड न्यूज छपती है। इन पेड न्यूजों का भुगतान पार्टी प्रत्याशी निजी तौर पर करता है। इसकी कीमत एक लाख रुपये से लेकर डेढ़ लाख रुपये तक है। चुनाव के दौरान अखबारों और न्यूज चैनलों में चुनाव प्रचार की रुटीन खबरें दिखाने के लिए एक लाख रु0 अलग से हर प्रत्याशी को देना पड़ता है। इसप्रकार हर विधानसभा सीट एक प्रत्याशी तीन-चार अखबारों और तीन न्यूज चैनलों पर कम सं कम 15 लाख रु0 और अधिकतम पच्चीस लाख रु0 खर्च करता है। दो करोड़ के चुनावी बजट का 15 प्रतिशत हिस्सा अखबारों और चैनलों के हिस्से आता है। यानी यदि हर विधानसभा पर सारे प्रत्याशी मिलकर यदि पांच करोड़ रुपये खर्च करते हैं तो लगभग साठ लाख रुपये मीडिया की जेब में जाता है। सत्तर विधानसभा सीटों पर लगभग 300 करोड़ रु0 प्रत्याशी खर्च करते हैं। इसमें से 45 करोड़ रु0 मीडिया पर खर्च होता है जिसका अधिकतम भाग बड़े क्षेत्रीय अखबार और क्षेत्रीय चैनल ले जाते हैं। यदि अभी तक हुए तीन विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों से इन अखबारों और न्यूज चैनलों को मिली कुल धनराशि की गणना की जाय तो अखबारों और चैनलों ने लगभग दो सौ करोड़ रु0 चुनावों में कमाये हैं। यदि इसमें हर साल निजी शिक्षण संस्थानों,निजी अस्पतालों, उद्योगों से हर साल होने वाली मीडिया की रंगदारी को भी जोड़ दिया जाय तो 12 सालों में निजी क्षेत्र से इनकी वसूली 50 करोड़ रु0 के आसपास है। लगभग पांच करोड़ रु राज्य की शिक्षण संस्थायें और अस्पताल उन खबरों को न छापने के लिए वसूल करते हैं जो छात्रों या मरीजों के साथ की जाने वाली लूट और बेईमानी से संबधित होती है या प्रदूषण से जुड़ी होती हैं। इस प्रकार उत्तराखंड में तमाम तरह के अन्यायों को को संरक्षण देने, उन्हे खुला खेल खेलने की छूट देने,चुनावों को शराब और पैसे का खेल बना देने के इस पूरे अवैध कारोबार में उत्तराखंड के मुख्यधारा के मीडिया ने साढ़े पांच सौ करोड़ रु0 कमाए है। यह दरअसल उन खबरों की कीमत है जो पिछले बारह सालों में पाठकों को पढ़ाई गई हैं या फिर दिखाई गई हैं। लेकिन ये मुफ्त में नहीं बांटी गई हैं बल्कि हर पाठक ने सत्ता के गलियारों,निजी संस्थानों के प्रबंधन के हाथों पहले ही बिक चुकी इन खबरों को दो-ढ़ाई या तीन रु0 प्रतिदिन की दर पर खरीदा। पैसे के इस खेल में सबसे ज्यादा दुर्गति उस व्यक्ति की हुई है जिसे हम पत्रकार या संवाददाता नाम के प्राणी के रुप में जानते थे। किसी जमाने में उसकी ऐसी हनक हुआ करती थी कि हर बड़ा आदमी उसे पटाने की जुगत में लगा रहता था। उसकी कलम के नीचे अफसरों से लेकर नेताओं के कैरियर दबे रहते थे। जनता के बीच उसका दर्जा मसीहा जैसा हुआ करता था। वह भले ही फटीचर रहा हो पर जनतो के बीच वह किसी नायक से कम नहीं होता था लोग उसे सच का पहरुआ मानते थे। लोगों को यकीन रहता था कि समूची दुनिया बिक जाएगी पर उसे नहीं खरीदा जा सकेगा। यथार्थ और अतिरंजनाओं के उतार-चढ़ाव भरे इन्ही वृतांतों के बीच उस समय के पत्रकारों की छवियां बना करती थी। पत्रकारों पर होने वाले हमलों की घटनायें जनांदोलनों में यूंही तो नहीं बदलती रही होंगी। उस समय लोग भले ही आज की तरह देश और दुनिया के बारे कम सूचनायें रखते हों लेकिन तब लोग अपने इर्द गिर्द एक पत्रकार के होने का अर्थ जानते थे। आज चूंकि वह पत्रकार ही नहीं रहा तो लोगों का जुड़ाव भी पत्रकार के प्रति वैसा नहीं रहा। उस रिश्ते की गरमाहट को आज नहीं जाना जा सकता। जनता के सवालों के साथ खड़े होकर , उनकी लड़ाईयों का हिस्सा बनकर खुद के होने की सार्थकता खोजने की बेचैनी से आम लोगों से करीबी रिश्ते बनते थे। आज का संवाददाता एक गाइडेड मिसाइल है जिसे लक्ष्य के लिए छोड़ा गया है। उसका काम बस इतना है कि वह लक्ष्य बेधकर अपने आका के पास लौट जाय और उससे पूछे,‘‘ अब क्या हुक्म है मेरे आका ?’’
आलोक मेहता जब दैनिक हिंदुस्तान में थे और तब दैनिक हिंदुस्तान का देहरादून संस्करण शुरु नहीं हुआ था। तब उन्होने एक मुलाकात के दौरान मुझसे कहा था कि उत्तराखंड से अखबार का संस्करण निकालना मेरे लिए एक सपने का सच होने जैसा होगा। क्योंकि उत्तराखंड में लोग अखबार पढ़ना जानते हैं। गांव के लोग भी अखबार की खबरों पर बहस कर सकते हैं। मैं आलोक मेहता की बात पर अचंभित था। इसका कारण यह था कि उत्तराखंड में निडर पत्रकारिता की एक लंबी परंपरा थी। अंग्रेजों के जमाने से लेकर और उत्तराखंड बनने तक सत्ता की ताकत को चुनौती देती अनगिनत बेहतरीन खबरें,रिपोर्टें पत्रकारिता के इस इतिहास की गवाही देंगी। राज्य बनने के समय भी जो सबसे बेहतरीन रिपोर्टें भी प्रकाशित हुई वे अमर उजाला या दैनिक जागरण में नहीं बल्कि सुदूर लखनऊ मे बैठे दैनिक जनसत्ता के संवाददाता हेमंत शर्मा की कलम से। मुझे याद है कि मैने शिमला में किस तरह से अपने न्यूज पेपर एजेंट से कहकर चंडीगढ़ से हर रोज जनसत्ता मंगाया। यह अखबार एक दिन बाद चंडीगढ़ पहुंचा करता था और उसके एक दिन बाद शिमला। मैं तब हेमंत शर्मा को पढ़ने के लिए कुछ भी दांव पर लगा सकता था। मैने उत्तराखंड राज्य के गठन के दिनों जितनी खबरें,रिपोर्टें पढ़ी वे हेमंत की खबरों के पासंग भी नहीं हैं। अद्भुत शिल्प और मानवीय सरोकारों की खबरें, कमाल की भाषाई जादूगरी! हेमंत के मुग्ध कर देने वाले वे लेख एक नए राज्य के जन्म पर लिखे गए शायद सबसे बेहतरीन लेख होंगे। पत्रकारिता को एक से बढ़कर एक सितारे देने वाली उत्तराखंड की धरती से एक भी ऐसी रिपोर्ट या लेख या खबर नहीं आई जो दशकों और सदियों तो दूर महीने भर तक याद रह जाय।अखबारों ने विशेष अंक निकाले वे विज्ञापन झटक कर पैसा कमाने के जुगाड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं थे। इन विशेषांकों को विज्ञापन टीमों की उपलब्धि के प्रोडक्ट के रुप में याद रखा जाएगा और वे इतिहास की पोथियों के बजाय विज्ञापन प्रबंधकों के कैरियर प्रोफाइल में नत्थी नजर आयेंगे।
नौ नवंबर सन् 2000 को ही तय हो गया था कि उत्तराखंड विज्ञापनों की चारागाह में बदल रहा है। आने वाले सालों में उत्तराखंड में चार ही उद्योग पनपे। ये चार मीडिया उद्योग,शराब उद्योग, तबादला उद्योग और भ्रष्टाचार उद्योग हैं। दिलचस्प बात यह है कि मीडिया के कारोबार में हुई बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार की दरों में हुई वृद्धि एक दूसरे के समानुपाती है। यानी ये दोनों एक दूसरे ताकत पाकर साथ-साथ फलते-फूलते रहे हैं। मीडिया और भ्रष्टाचार का यह बंधुत्व ही उत्तराखंड में आई राजनीतिक गिरावट का प्रमुख अपराधी है। उत्तराखंड में एक क्षेत्रीय न्यूज चैनल है। इसके उत्तरी राज्यों का जिम्मा जिन सज्जन के पास है उनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह पत्रकारिता के मामले में निराट किस्म के अनपढ़ हैं।पत्रकारिता या टीवी जर्नलिज्म से उनका कभी लेना देना नहीं रहा। इन सज्जन की ख्याति सत्ता के गलियारों में दलाल की है। वह हर महीने देहरादून आते हैं और उनके आने की खबर पहले ही सत्ता के शिखर पहुचा दी जाती है। दूसरे दिन सुबह इन सज्जन को दो करोड़ रु0 की अटैची थमा दी जाती है। पूरे उत्तराखंड इस चैनल द्वारा हर महीने दो करोड़ रु0 की वसूली किए जाने की चर्चा है। उत्तराखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने इन सज्जन द्वारा पैसा वसूली का जो किस्सा सुनाया वह तो रंगदारी वसूल करने से कम नहीं है। मैने उनको सलाह दी कि वह मीडिया के साथ एक मुख्यमंत्री के अपने अनुभवों पर वह एक किताब जरुर लिखें। उनका कहना था कि जब मैं राजनीति से अवकाश प्राप्त करुंगा तब ये अनुभव लिखूंगा। आज लिखंूगा तो कई चेहरे बेनकाब हो जायेंगे और वे मिलकर राजनीति में मेरा जीना हराम कर देंगे। उनका भय जायज है। यह बर्रे के छत्ते पर हाथ डालने जैसी कार्रवाई होगी। एक अन्य मुख्यमंत्री ने पहाड़ के एक स्टेशन पर अंशकालिक संवाददाता के पद पर पसंदीदा व्यक्ति की नियुक्ति न करने पर बुरी तरह हड़काया। इस हड़काने का असर यह हुआ कि उक्त चैनल में उक्त मुख्यमंत्री के चेले-चपाटे ही नियुक्त किए गए। एक क्षेत्रीय दैनिक के संपादक इसलिए बदल दिए गए कि मुख्यमंत्री उन्हे नहीं चाहते थे। उत्तराखंड में अखबार दरअसल अपनी ताकत से नहीं चल रहे हैं वे सरकारी विज्ञापन की बैसाखियों पर टिके हैं। जिस दिन भी सरकार अपनी बैसाखियां छीन ले उस दिन ये सूरमा धड़ाम हो जायेंगे। उत्तराखंड के सारे राजनेता इस सच्चाई को जानते हैं इसलिए वे क्षेत्रीय अखबारों और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों को अपने गेट पर बांधकर रखते हैं। वे यदि कभी गुर्राते हुए दिखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हे नेता के हिस्से आ रही भ्रष्टाचार की बकरी में अपने हिस्से की बोटी चाहिए।पत्रकारिता के नाम पर यह चोर सिपाही का खेल चलता रहता है। मीडिया में कौन किस पद पर रहेगा,यह फैसला भी अब नेताओं के हाथ में है। यदि आप फलां नंता को नापसंद हैं तो तय मानिए कि आप चैन से नहीं रह सकते। मीडिया की इस दुर्दशा ने नेताओं को नकचढ़ा और बेलगाम बना दिया है। निशंक राज में मुख्यधारा के पूरे मीडिया ने जिस तरह से चारण और भाटगिरी की वह पूरे राज्य ने देखा। यह मीडिया के भ्रष्ट होने की इंतहा थी।
उत्तराखंड के अनुभवों ने बताया है कि एक भ्रष्ट राजनेता या अफसर समाज की जीवनी शक्ति को उतना नुकसान नहीं पहंुचाता जितना एक भ्रष्ट मीडिया पनहुचाता है। क्योंकि भ्रष्ट मीडिया भ्रष्टाचार को निरंकुश बना देता है।उत्तराखं डमें भ्रष्टाचार के बेलगाम और भयमुक्त होने का असली अपराधी दरअसल मीडिया के क्षेत्रीय क्षत्रप हैं।
मीडिया का चरित्र अब यही हो गया है..क्या करें.
जवाब देंहटाएंअब मिडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं रहा.अब ये दूषित हो गया है.
जवाब देंहटाएंthanks for ur comments.
जवाब देंहटाएं