रविवार, 3 जून 2012

Is Amar Ujala Dehradun suffering from the ghost of regionalism


             
              खतरनाक है खबरों का क्षेत्रवादी हो जाना

       अमर उजाला के देहरादून संस्करण पर क्षेत्रवाद की प्रेतछाया

पत्रकारिता के छात्रों को अभी भी यही पढ़ाया जाता है कि खबर वही है जो आदमी के द्वारा कुत्ते   को काटे जाने का ब्यौरा दे। खबर की इस क्लासिकल परिभाषा के बीच अमर उजाला के देहरादून संस्करण ने पत्रकारिता को पुनर्परिभाषित करने का बीड़ा उठाया है। खबर की नई परिभाषा यह है कि यदि बनारस का कोई कुत्ता भी यदि बिजली परियोजनाओं के निर्माण पर छींक दे तो वह खबर ही नहीं है बल्कि प्रथम पृष्ठ पर विराजमान होने लायक कृत्य है। लेकिन पहाड़ में यदि जल, जंगल,जमीन, और रोजगार,कारोबार पर पहाड़ के लोगों के हक को लेकर आंदोलन करे तो खबर नहीं क्षेत्रवाद है।लेकिन क्षेत्रवाद का यह मंजर कोई खबरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि अखबार के भीतर उसके दफ्तर के हर छोटे बड़े फैसलों तक फैला है। अमर उजाला के देहरादून संस्करण पर क्षेत्रवाद का भूत लग गया है। किसी अखबार का दिलो दिमाग से क्षेत्रवादी हो जाना पत्रकारिता के भविष्य के प्रति नहीं बल्कि अखबार भविष्य को लेकर चिंतित करता है। यह स्व0 अतूल माहेश्वरी की उस परंपरा का अखबार तो निश्चित तौर पर नहीं है जिसने मुलायम सिंह के ‘‘हल्ला बोल’’ की सरकारी अराजकता नीचे उत्तराखंड आंदोलन को पूरी ताकत और निष्ठा से समर्थन दिया था। लेकिन क्या उत्तराखंड से उठ रही ‘‘ बोल पहाड़ी हल्ला बोल’’ की गूंज को सिर्फ खबरें न छापे जाने से रोका जा सकता है? क्या हिेंदी और अंग्रेजी मीडिया के तमाम हमलों के बावजूद महाराष्ट्र ,झारखंड,पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु तक फैले क्षेत्रवादी जनाकांक्षाओं के उभार को रोका जा सका?
बात यदि अमर उजाला के देहरादून संस्करण की छिड़ी है तो बेहतर यही है कि इसे स्व0 अतुल माहेश्वरी से ही शुरु किया जाय। क्योंकि मेरठ और देहरादून संस्करण उन्ही के सपनों की जमीन पर खड़े हुए हैं। अतुल माहेश्वरी न तो पहाड़ी थे और न पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट या गुज्जर। लेकिन  टिकैत के आंदोलन को एक ऐतिहासिक आंदोलन बनाने में यदि महेंद्र सिंह टिकैत की खांटी देसी समझ और अतुल माहेश्वरी की पत्रकारीय समझ का बराबर योगदान रहा है। उस दौर के अमर उजाला के पन्नों पर फैली खबरों के अंबार अतुल माहेश्वरी की पत्रकारीय निष्ठा और समझ की गवाही देंगी।अतुल माहेश्वरी शहरी भद्रलोक से आए थे। टिकैत को लेकर तब शहर का भद्रलोक नाक भा।ह सिकोड़ा करता था। तब का नेशनल प्रेस को टिकैत के आंदोलन में गोबर की दुर्गंध आती थी, वह इस अंादोलन को नाक और आंख बंद कर देखता था। हिंदी मीडिया इसे गंवारों और जाहिलों का आंदोलन मानता था। तब के राष्ट्रीय अखबारों के रिकार्ड हिेदी पट्टी के भद्रलोक की इस एलर्जी के साक्षी हैं। लेकिन स्व0 अतुल माहेश्वरी ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के खेतों,खलिहानों में फैले इस किसान असंतोष और देहाती शक्ति के उदय के इस उजाले को अपने अखबार के पन्नों पर फैलाया। यूपी के लोगों ने खेतों-खलिहानों से उठ रहे टिकैत के बंवडर से साक्षात्कार किया। स्व0 माहेश्वरी की पत्रकारिता की इस बुनियादी समझ ने अमर उजाला को देहातों का सबसे बड़ा अखबार बना दिया है। आज भी अमर उजाला की जड़ें यदि हिली हैं तो पश्चिमी उत्तरप्रदेश के शहरी मध्यवर्ग में न कि देहातों में। अतुल माहेश्वरी चाहते तो अपने समकालीन संपादकों की तरह शामली,खतौली जैसे ठेठ ग्रामीण इलाकों से आ रही गोबर की गंध वाली हवाओं पर नाक बंद कर बैठ सकते थे।
उत्तराखंड आंदोलन का दौर में भी यही हुआ। आंदोलन की खबरें जैसे-जैसे अमर उजाला के पन्नों पर फैलने लगीं वैसे-वैसे आंदोलन भी बढ़ने लगा। आंदोलन और अखबार दोनों एक दूसरे को ऊर्जा दे रहे थे और एक दूसरे से ऊर्जा भी ग्रहण कर रहे थे। मैने उस दौर में नई टिहरी से लेकर ठेठ गोपेश्वर और उत्तरकाशी तक सुबह सवेरे सैकड़ो लोगों को अखबारों की इंतजार करते हुए देखा है। अखबार के बंडल आते थे और मिनटों में कैश बिकने वाली प्रतियां हवा हो जाया करती थीं। ऐसी लोकप्रियता किसी भी अखबार के लिए सबसे सुहावने और खूबसूरत सपने की तरह है। उत्तराखंड आंदोलन की छवि उत्तर प्रदेश में क्षेत्रवादी आंदोलन की थी और यह गलत भी नहीं था। क्योंकि उत्तराखंड आंदोलन की बुनावट में क्षेत्रवाद के धागे हर समय रहे हैं। वैसे भी क्षेत्रवादी रेशे के बिना कोई भी क्षेत्रीय आंदोलन नहीं बन सकता। जातीय पहचानों के आंदोलन जिन जातीय स्मृतियों से पुष्पित व पल्लवित होते हैं वे निराकार नहीं होती। उनमें जातीय इतिहास के अहंकार भी होते हैं, जातीय श्रेष्ठता का गौरव भी होता है तो वे अर्थशास्त्रीय तर्क भी होते हैं जिनसे जातीय पहचान के आंदोलन तार्किकता और बौद्धिकता की आधुनिक जमीन पर खड़े होते हैं। उत्तराखंड आंदोलन में भी ये सारे तत्व थे जो उसे क्षेत्रवादी बनाते थे। अतुल माहेश्वरी पहाड़ी नहीं थे इसलिए वह भी पहाड़ी क्षेत्रीयता के इस आंदोलन के प्रति एलर्जी रख सकते थे। लेकिन उनके भीतर एक पत्रकार था जिसमें एक समाज की आकांक्षाओं को समझने की क्षमता थी। उत्तराखंड आंदोलन को ज्यादा कवरेज देने की अमर उजाला और दैनिक जागरण के रुख ने मुलायम सिंह यादव को चिढ़ाया और उन्हाने इन अखबारों के यूपी के मैदानी शहरों और ग्रामीण इलाकों में स्थित कार्यालयों पर हल्ला बोल के नाम पर हमले शुरु कर दिए।यह कठिन घड़ी थी। क्योंकि अखबारों के खिलाफ मैदानी क्षेत्रवाद और पहाड़ विरोधी भावनायें भड़कायी जा रही थी। अमर उजाला के मेरठ संस्करण के लिए यह और भी कठिन था। क्योंकि इस आंदोलन के कारण इस संस्करण के प्रोजेक्ट के विफल हो जाने का खतरा था। मेरठ संस्करण स्व0 अतुल माहेश्वरी का सपना था। लेकिन अतुलजी यह जोखिम उठाकर भी दृढ़ता से उत्तराखंड आंदोलन के साथ खड़े रहे। उत्तराखंड में अमर उजाला उनकी इसी कमाई के बूते खड़ा है। जिस दिन स्व0 माहेश्वरी का यह पुण्य क्षरित हो जाएगा उसी दिन अमर उजाला निपट जाएगा। 
अतुल माहेश्वरी के ये वृतांत बताते हैं कि अखबार व्यक्तिगत आग्रहों,दुराग्रहों से नहीं चलते। अखबारों का काम संपादकों या डेस्क इंचार्जों को पंसद न आने वाली खबरों को सेंसर करना नहीं हैं। घटनायें और विचार संपादकों या रिपोर्टरों की सहमति या उनकी मर्जी से नहीं घटा करती। वे खुदा नहीं है कि खबरें उनके बोलने से घटें,उनके चाहने से बैठें और उनके कहने से चलने लगें। जो संपादक,डेस्क इंचार्ज और रिपोर्टर यदि अपनी पंसद की सब्जियों की तरह नर्सरी में खबरें उगाना चाहते हैं तो उन्हे पत्रकारिता छोड़कर किचन गार्डनिंग के पेशे में हाथ आजमाना चाहिए। शायद वे वहां कामयाब हो जांय। वैसे भी एक अखबार का भट्ठा बिठाने से कहीं ज्यादा बेहतर है कि इन सूरमाओं को एक खेत को बरबाद करने का अवसर दिया जाय। हम किसी से सहमत हों या नहीं लेकिन खबरें जनता की अमानत हैं, जनता को यह जानने का अधिकार है कि उनके राज्य,देश या दुनिया में क्या हो रहा है जो उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। जानने का यह अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी से कहीं बड़ा अधिकार है। संपादक और डेस्क इंचार्ज कोई मुगलकालीन शहंशाह नहीं हैं कि वे अपनी मर्जी से जनता को सूचनायें परोसें। वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। 
यह अजीब सी बात है कि बनारस में एक अनाम साधु यदि बिजली प्रोजेक्टों का विरोध कर रहा है तो वह अमर उजाला में पहले पेज की खबर है। अमर उजाला को कैग की उस रिपोर्ट को छापने पर गर्व है जिसमें कैग ने बिजली प्रोजेक्टों के कारण यूपी और बिहार में पानी कम होने की आशंका जताई है। कैग को संवैधानिक रुप से एक आॅडीटर है। एक आॅडीटर कैसे जल विज्ञान विशेषज्ञ हो सकता है और यह उसकी संवैधानिक मर्यादा के विरुद्ध है। यह सवाल उठाने के बजाय अखबार उसकी रिपोर्ट को गीता के 18 वें अध्याय की तरह पेश कर रहा है। यदि जीडी अग्रवाल के पेट से वायु निस्तारण नहीं हो रहा है तो अमर उजाला के लिए यह प्रथम पृष्ठ की खबर है। लेकिन अखबार यह नहीं बताता कि यह वही सज्जन हैं जिन्होने टिहरी बांध के लिए पर्यावरण सलाहकार का काम किया। यदि टिहरी बांध पर्यावरण के हित में है तो कुछ भी पर्यावरण के लिए नुकसानदेह नहीं है। अमर अजाला बनारस में कुछ जोगियों द्वारा पनबिजली परियांजनाओं का विरोध करने को इतना बड़ी खबर बनाकर पेश करता है कि लगता है कि जैसे देश में जोगिया क्रांति होने वाली है। दिलचस्प यह है कि इन साधुओं में न तो ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य हैं और न कई प्रमुख अखाड़े। खबरों में यह पक्षपात अंधा भी देख सकता है भले ही इन खबरों को छापने वाले ये मान लें कि उनके पाठक गंजे और दिमागविहीन भीड़ है। यह कैसी पत्रकारिता है कि बनारस का कुत्ता भी यदि छींक दे तो प्रथम पृष्ठ की खबर और यदि लछमोली में जीडी अग्रवाल के घर पर पहाड़ के लोग प्रदर्शन करें तो उसका जिक्र तक नहीं।बल्कि ‘कुछ लोगों ने प्रदर्शन किया’ जैसी टिप्पणी कर उसका उपहास किया जाता है। पहाड़ के सवालों से इतना डर कि वरिष्ठ पत्रकार शंकर सिंह भाटिया की किताब ‘‘ पहाड़ के ज्वलंत सवाल ’’ की समीक्षा सभी संस्करणों में छपती है पर देहरादून संस्करण को पहाड़ के ज्वलंत सवालों से डर लगता है और वह अपने ही वरिष्ठ समीक्षक कल्लोल चक्रवर्ती द्वारा लिखित उसकी समीक्षा छापने की हिम्मत नहीं करता। यह खबरों का क्षेत्रवाद नहीं है तो क्या है? दरअसल क्षेत्रवाद का खबर बनना खतरनाक नहीं है बल्कि खबरों का क्षेत्रवादी हो जाना खतरनाक है।
यह क्षेत्रवाद केवल खबरों तक नहीं है बल्कि उसके दफ्तर में भी पसरा हुआ है। अमर उजाला के पास पहाड़ के योग्य पत्रकारों का इतना अभाव है कि एक भी डेस्क इंचार्ज पहाड़ का बाशिंदा नहीं है। पहाड़ में आने के 26 साल बाद भी यदि एक अखबार के पास उस धरती के योग्य पत्रकार नहीं हैं तो या तो वहां के लोगों में पत्रकारीय प्रतिभा नहीं है या फिर अखबार के इरादे ठीक नहीं हैं। यह पूरा देश जानता है कि उत्तराखंड के पहाड़ों ने देश को बेहतरीन पत्रकार दिए हैं। जाहिर है कि बीमारी अखबार के भीतर है। यदि एक अखबार अपने भीतर  भी क्षेत्रवादी है तो स्थानीय लोगों से नफरत कर आप किसी क्षेत्र में अखबार नहीं चला सकते। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि अमर उजाला में पिछले कुछ समय से जो तबादले हुए हैं उसके शिकार पहाड़ी पत्रकार ही ज्यादा हुए हैं। जब डेस्क और महत्वपूर्ण स्थानों पर पहाड़ के लोग नहीं होंगे तो पहाड़ के बारे में अज्ञान अखबार के पेजों पर पाठकों के बीच अखबार की खिल्ली उड़ाता रहेगा। ऐसा भी नहीं है कि पहाड़ी पत्रकार हर हाल में क्षेत्रवादी ही होगा पर उनकी प्रतिभा के साथ क्षेत्रवादी कारणें से अन्याय किया जाएगा तो वे भी क्षेत्रवादी होंगे ही। किसी अखबार का बाहर से क्षेत्रवादी होना और  भीतर से क्षेत्रवादी लाइन पर विभाजित हो जाना, उसके लिए विपत्ति की शुरुआत है। विपत्ति अमर उजाला के देहरादून संस्करण के दरवाजे खटखटा रही है और उसके कर्ताधर्ता उसके स्वागत में लाल कालीन बिछाकर दरवाजे खोलने को बेताब हैं।

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