मंगलवार, 3 जनवरी 2012

Anna Hazare is not holy Cow


                     जो चारण नहीं होंगे -------




Arogant Team Anna

टीम अन्ना या अन्ना हजारे के रवैये पर जब भी कोई सवाल उठता हे तब अन्ना समर्थकों की प्रतिक्रया को देख एक कविता याद आती है,‘‘ जो हत्यारे नहीं होंगे मारे जायेंगे/जो चारण नहीं होंगे,मारे जायेंगे’’। आलोचकों और विरोधियों के प्रति ऐसे ही हालात सन् 1991 के उस दौर दौर में थे जब बाबरी मस्जिद को गिराने का आंदोलन चल रहा था । तब हमारे कुछ मित्र पत्रकारों ने एक पोस्टर निकाला था,‘‘ खतरनाक नहीं है सांप्रदायिकता का खबर हो जाना/ खतरनाक है खबरों का सांप्रदायिक हो जाना’’। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के एक दौर में भी ऐसी ही समस्या आई थी। तब हम कुछ लोग टिहरी बांध विरोधी आंदोलनकारियों द्वारा पूरे आंदोलन को आदरणीय सुंदर लाल बहुगुणा की व्यक्तिपूजा में बदलने का विरोध कर रहे थे। हमारे कई वामपंथी मित्र भी इसी व्च्यक्तिपूजा के शिकार हो गए थे। हम लोग तब भी कह रहे थे कि बांध विरोधी आंदोलन को एक व्यक्ति की अंधश्रद्धा में बदलना गलत है। एक व्यक्ति पर आंदोलन के आश्रित होने का नतीजा टिहरी के लोगों ने भुगता भी। जो लोग तब श्री बहुगुणा के खिलाफ एक शब्द सुनने को तैयार नहीं थे वे ही आज श्री बहुगुणा के सबसे कटु आलोचक हैं। मैं जो उनका आलोचक था आज भी उनका उसी तरह से सम्मान करता हूं  और टिहरी के सामाजिक आंदोलनों में उनकी भूमिका और महत्व को स्वीकार करता हूं। यह आंदोलनों को देखने का हमारा नजरिया है कि हम समाज को व्यक्तिपूजा के रोग ने सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया। तर्कसंगत और पूर्वाग्रह रहित आलोचनायें हर समय व्यक्ति और समाज को स्वस्थ बनाए रखती हैं। जो लोग अन्ना और उनकी टीम को कुरान की तरह पवित्र और गाय की तरह अवध्य मानते हैं वे किसी की भी ईमानदारी पर सवाल उठा दें। क्योंकि वे तर्क से नहीं भावनाओं से संचालित हैं। ठीक उसी तरह जैसे बाबरी ध्वंस के समय के समय समाज का एक बड़ा तबका था। कुछ मित्र मानते हैं कि अन्ना की आलोचना क्यों करनी चाहिए? यह लोकप्रियता के मानदंडों और धारा के खिलाफ है। देश के सारे चैनल और अखबार यही तो कर रहे हैं। क्योंकि उनमें आलोचना करने का साहस नहीं है। लेकिन पत्रकार और लेखक का काम मदांध लोकप्रियता के आगे घुटने टेकना नहीं है। तानाशाह मदांध लोकप्रियताओं के घोड़ों पर सवार होकर आते रहे हैं। पत्रकार और लेखक का काम वर्तमान में रहते हुए भविष्य को भांपना है । प्रशस्ति वाचन चारणों का काम हो सकता है पर लेखक अपने समय से आगे देखता है। व्यक्ति हो या, आंदोलन अपने भीतर से आलोचना के प्रति मैत्रीपूर्ण नहीं होते। लोकतंत्र व्यक्तियों और आंदोलनों के स्वभाव को आलोचना के प्रति सहिष्णु बनाता है। कांग्रेस और नेताओं को गाली देने वाले लोग जब अन्ना या उनकी टीम की आलोचना सुनते हैं तो बौखला जाते हैं। तर्क के बजाय गाली गलौच पर उतर आते हैं या व्यक्तिगत आक्षेपों के स्तर तक गिर जाते हैं। जो लोग अन्ना की आलोचना नहीं सुन सकते उन्हे नेताओं की आलोचना का क्या अधिकार है? यदि किसी आंदोलन का चरित्र भीतर से फासिस्ट और लोकतंत्र विरोधी है तो वह तमाम महान उद्येश्यों की रामनामी जपने के बावजूद जनता के लिए अंततः खतरनाक साबित होगा। जेपी ने 1974 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को व्यक्तिपूजकों की भीड़ में नहीं बदला। उस आंदोलन में राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों की एक बड़ी तादाद थी। उनमें से अधिकांश लोग तर्क और लोकतांत्रिक विमर्श पर यकीन रखते थे। आरएसएस की भागीदारी के बावजूद वह आंदोलन इसी विशेषता के कारण असहिष्णु आंदोलन में नहीं बदला।
आज यह दावे के साथ कहा सकता हैं कि इस देश के 99 प्रतिशत लोग अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी से ज्यादा ईमानदार और देशभक्त हैं। क्योंकि वे हराम के पैसों से हवाई जहाज की यात्रा नहीं करते। उनका जीवन यापन किसी विदेशी या देसी फंडिंग एजेंसी के दान से नहीं चलता। वे भारत के सामाजिक राजनीतिक असंतोष को फाइनेंस करने वाली विदेशी एजेंसियों एक्शन ऐड या आॅक्सफेम या नार्वे या स्वीडन से आंदोलन चलाने के लिए पैसा नहीं लेते। वे भारतीय कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसे से मुफ्त बसें या मुफ्त खाना खिलाकर आंदोलन नहीं चलाते। वे 20-25 लाख से लेकर पचास लाख की शानदार गाड़ियों और आलीशान बंगलों में नहीं रहते। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की फसल जिस तरह से टीम अन्ना ने भाजपा की दुकान पर बेच दी है वह जनता के साथ विश्वासघात नही ंतो क्या है। यदि टीम अन्ना के लाग निष्पक्ष होते तो उत्तराखंड,यूपी,पंजाब,गोवा और मणिपुर के लोगों से अपील करते कि जो भी प्रत्याशी ईमानदार और साफ सुथरा राजनीति चरित्र वाला है उसे वोट दो। चाहे वह कांग्रेस,भाजपा, अकाली दल यूकेडी, भाकपा-माकपा समेत किसी भी दल का क्यों न हो। किसी  जन आंदोलन के लिए जरुरी है कि वो ईमानदार भी हो और ईमानदार लगे भी। कांग्रेस का विरोध कर भाजपा के पक्ष में खड़ा होना राजनीतिक बेईमानी है। यदि टीम अन्ना ऐसा नहीं कर सकती थी तो उसे जनता के सामने अच्छे लोगों का एक राजनीतिक विकल्प लेकर आना चाहिए था। अगले चुनाव के नतीजे बता देंगे कि चैनलों और अखबारों के बल पर आंदोलन चलाने वालों की जमीन कितनी पोली है। बावजूद इन अपरिपक्व और बचकाना राजनीतिक हरकतों के यह माना जाना चाहिए कि इस आंदोलन ने भारत में निरंकुश होते जा रहे भ्रष्टाचारियों के भीतर थोड़ा ही सही पर डर जरुर पैदा किया है। इस आंदोलन का यही एक उज्जवल पक्ष है। यदि यह सब कहना कुफ्र है तो हम जैसे लोग पूरे देश में यह अपराध करते रहेंगे पर चारण नहीं बनेंगे चाहे साक्षात महात्मा गांधी ही क्यों न धरती पर उतर आयें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें