रविवार, 25 नवंबर 2012

Media is a puppet of Corporates: Governor


    गवर्नर बोलेः पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली है मीडिया

आज उत्तराखंड में ण्क नए दैनिक जनवाणी की औपचारिक लाचिंग हो गई। सबसे ज्यादा तालियां राज्यपाल के 
भाषण ने बटोरी। हरीश रावत और अन्य वक्ताओं ने मीडिया का महिमा मंडन किया लेकिन राज्यपाल ने मीडिया की सच की परत दर परत खोल डाली। वह प्याज के छिलकों कीतरह मीडिया को नंगा करते रहे और हाल तालियों गड़गड़़ाता रहा। यह जनमत था जो तालियों के जरिये मीडिया के भीतर की कुरुप सच्चाई को दाद  दे रहा था। राज्यपाल का कहना था कि भारतीय मीडिया दरअसल पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली है। इसमें पत्रकार की आवाज की कोई जगह नहीं है। मेरे एक पत्रकार मित्र की टिपपणी थी कि पत्रकार को मालिकों ने टूल यानी औजार में बदल दिया है। औजार एक निष्प्राण ढ़ांचा होता हैं और उसकी अपनी कोई पक्षधरता नहीं होती। मीडिया के भीतर जो सबसे बड़ी और अद्भुत सर्जनात्मक शक्ति है वह उसमें काम करने वाले पत्रकार हैं। लेकिन अब मीडिया पत्रकारों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा वह मालिकों की कारपोरेट हितों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। यानी अखबार,न्यूज चैनल सब हिज मास्टर्स वाइस के रिकार्ड हैं जो घिसते-घिसते बसुरे हो चुके हैं।
Governor of Uttrakhand addressing a gathering on the occasion of launching of Hindi Daily " Janvaani" at Dehradun : IPhone photo by  Ravikant
उम्मीद है कि राज्यपाल भी अपने भाषण को राजभवन जाकर भूल जायेंगे। क्योंकि इतनी बेचैनियों के साथ वह राज्यपाल नहीं बने रह सकते। इसलिए इतिहास में तालियों की आवाज ही रिकार्ड हो सकेगी  लेकिन उसके संदर्भ शायद ही कभी याद रखे जायेंगे। हम भी इसे एक ऐसे अच्छे भाषण के रुप में याद रखेगे जो सच तो कहता है पर कुछ करता धरता नहीं है। उत्तराखंड में राज्यपाल के भाषण सरोकारों से लदे रहते हैं और गवर्नर की सरकार के मुखिया का पूरा कार्यकाल पूंजीपतियों और बड़े लोगों के हितों की चैकीदारी करने में गुजर जाता है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री एक ही सरकार की दो जुबाने हैं। आप सब लोग जानते हैं दो जीभें या सांप की होती हैं या फिर कलम की। इस राज्य की जनता इन्ही द्वि जिह्वा धारकों के बीच सहमी हुई सी फंसी हुई है। 
जनवाणी यदि उत्तराखंड की पत्रकारिता में आए ठहराव को तोड़ सकी तो कामयाब हो सकता है। सूचनाओं की पत्रकारिता को सरोकारों की पत्रकारिता में बदलना आसान काम तो नहीं है। फिर भी उम्मीद करने में क्या हर्ज है?

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