सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

Uttrakhand: A Dream Aborted


                                             एक सपने की असामयिक मौत
एस0राजेन टोडरिया
उत्तराखंड में चुनावी मोर्चों पर हो रही गोलाबारी अब शांत हो चुकी है। लाखों की तादाद में गांवों,कस्बों में बिखरी शराब की खाली बोतलें चुनावी नशे की कहानी बयान कर रही हैं। चुनावी कुरूक्षेत्र में मारकाट मचा रही राजनीति की घुड़सवार सेनायें अब शिविरों में थकान उतार रही हैं। गांव की चैपालों,कस्बों की चाय की से लेकर राजनीतिक दलों के दफ्तरों,सचिवालय के भद्रलोक तक हर जगह अपने-अपने पसंद से भविष्य की सरकारें बन रही है। सरकार चाहे कोई भी बनाए पर तीसरी विधानसभा के चुनावों ने इतना तो साफ कर दिया है कि राजनीति का केंद्र पहाड़ नहीं बल्कि मैदान की ओर जा रहा है। 
पहचान और विकास की चाह ने पहाड़ों में जिस विशाल जनांदोलन को जन्म दिया था वह दस साल में ही निरर्थक हो गया। विडंबना यह है कि नैराश्य और अलगाव की काली छाया उत्तराखंड के पहाड़ों को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी चपेट में ले रही है। यह कांग्रेस और भाजपा से मोहभंग का चुनाव भी था और क्षेत्रीय दलों से नाउम्मीदी का भी । पांच साल तक सत्तापक्ष का ही एक हिस्सा दिखती रही कांग्रेस ने प्रतिपक्ष की अपनी भूमिका निभाई ही नहीं। भाजपा की राजनीतिक दरिद्रता का हाल यह था कि पांच साल सरकार चलाने के बावजूद उसके पास उपलब्धि के नाम पर केवल बीसी खंडूड़ी थे। दूसरी ओर कांग्रेस भाजपा सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने में शरमाती रहीे। यदि सोनिया गांधी और राहुल गांधी आकर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक पर हमला नहीं बोलते तो कांग्रेसी नेताओं के लिए वह जेठजी ही बने रहते। आम लोगों की बुनियादी समस्याओं को संबोधित करने में दलों की चैतरफा नाकामी का ही नतीजा था कि यह चुनाव जातियों,विधानसभा के भीतर की क्षेत्रीय संकीर्णताओं, धनबल और शराब की बोतलों तक सिमट गया। राज्य बनने के इन दस सालों में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में पहाड़ के हालात 1970 से भी बुरे हो गए हैं। अंग्रेजों के जमाने में भी जिन अस्पतालों में डाॅक्टर थे उनमें भी राज्य बनने के बाद डाॅक्टर नहीं हैं। सन् 1970-80 में जिन स्कूलों और काॅलेजों को यूपी के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में गिना जाता था उनमें या तो शिक्षक नहीं हैं या फिर सिफारिशी लोग तैनात हैं। सरकारी संवेदनहीनता और निकम्मेपन का आलम यह है कि पिछली दो बरसातों में जब पहाड़ी क्षेत्रों में बाढ़ और भूस्खलन कहर बरपाते रहे तब वहां सरकार नदारद थी। संकट के उस वक्त में अधिकांश विधायकों से लेकर मंत्रियों तक कोई भी अपने निर्वाचन क्षेत्र में मौजूद नहीं था। 21 वीं सदी के उत्तराखंड में तीन-तीन महीने तक गांवों में खाद्यान्न नहीं पहुंच पाया, आठ माह बीतने के बाद भी सड़कें ठीक नहीं हो पाईं। यह उस राज्य की दुर्दशा है जिसे पहाड़ों की उपेक्षा खत्म करने के नाम पर बनाया गया था। पहाड़ों के हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि हर साल हजारों लोग पहाड़ों से मैदान की ओर पलायन कर रहे हैं। गांव उजड़ रहे हैं और पूरा पहाड़ इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन के मुहाने पर है। उत्तराखंड की त्रासदी यह है कि पहाड़ की इस दुर्दशा के लिए उसके लोग किसी मायावती या किसी मुलायम सिंह यादव को खलनायक नहीं बना सकते। दुर्दशा की इस दास्तां के विश्वकर्मा यूपी में नहीं हैं बल्कि वे पहाड़ की छाती पर ही दनदनाते घूम रहे हैं।
लगभग सारे विधायकों और मंत्रियों ने अपने आशियाने देहरादून या हल्द्वानी में बना दिए हैं। एक भी विधायक अपने निर्वाचन क्षेत्र में रहने को तैयार नहीं है। उत्तराखंड के सांसदों के घर दिल्ली में तो है पर पहाड़ में नहीं। संसदीय क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र उनके लिए पर्यटन स्थल बनकर रह गए हैं। विधायकों,मंत्रियों और सांसदों की देखादेखी जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाॅकप्रमुखों से लेकर ग्राम प्रधान तक या तो मैदानों में उतर आए हैं या फिर गांवों को छोड़कर जिला मुख्यालयों में डेरे जमाए बैठे हैं। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस और भाजपा के भीतर मुख्यमंत्री बनने के जो भी दावेदार हैं उनमें से एक का निर्वाचन क्षेत्र पहाड़ में नहीं है। मुख्यमंत्री के दावेदारों में से एक का भी घर भी पहाड़ में नहीं हैं। पहाड़ी राज्य की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी? 
यह उपेक्षा अर्थव्यवस्था में भी बोल रही है। इन दस सालों में विकास की बड़ी धारा मैदान में ही बहती रही है। यदि सेवा क्षेत्र को छोड़ दें तो पहाड़ में सकल घरेलू उत्पाद की दर नेगेटिव है। यह उस राज्य की हालत है जिसकी विकास दर नौ फीसदी से ज्यादा तेज रफ्तार से दौड़ रही है। सकल घरेलू उत्पाद में 65 प्रतिशत योगदान तीन मैदानी जिलों का है और 10 पहाड़ी जिलों का योगदान महज 35 फीसदी है। इसमें से भी यदि कोटद्वार,हल्द्वानी, ढ़ालवाला और रामनगर जैसे मैदानी इलाके निकाल दे ंतो यह अनुपात तीस प्रतिशत से भी कम हो जाता है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में पहाड़ का योगदान 25 प्रतिशत के आसापास है। सेवा क्षेत्र में यह 28 प्रतिशत के आसपास है। मैदान में प्रतिव्यक्ति आय 33,711 रु0 है जबकि पहाड़ में यह 22,558 रु0 ही है। यदि कृषि और पशुपालन से एक पहाड़ी ग्रामीण की आय की गणना करें तो यह घटकर 6,374 रु0 ही रह जाती है। यानी कि पहाड़ के ग्रामीण व्यक्ति को हर माह 531 रु0 में जीवन निर्वाह करना पड़ रहा है। इसे विकास की विडंबना ही कहिए कि नौ फीसदी की विकास दर से दौड़ रहे राज्य में पहाड़ के लगभग 32 लाख 89 हजार ग्रामीण 17 रु0 रोज में गुजारा कर रहे हैं। सरकारी क्षेत्र के काट्रेक्टों से लेकर उच्च पदों पर होने वाली नियुक्त्यिों पर बाहरी लोगों का कब्जा है। पनबिजली से लेकर शिक्षा के धंधे तक लगभग सारे कमाऊ धंधों में पहाड़ के लोगों का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं के नजरिये से देखें तो  मैदान में इमरजेंसी में डाॅक्टर तक पहुंचने का औसत समय बीस मिनट है जबकि पहाड़ पर इमरजेंसी में डाॅक्टर तक पहुचने का समय 4 घंटा 48 मिनट है। सरकारी नौकरियों में पहाड़ के निवासियों का अनुपात राज्य बनने के बाद तेजी से गिरा है। लोकसेवा आयोग, सीपीएमटी और संयुक्त इंजीनियरिंग परीक्षाओं में सफल होने वालों में पहाड़ के छात्र-छात्राओं की तादाद घट रही है।बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट सूची में भी पहाड़ी क्षेत्रों के छात्र-छात्राओं का अनुपात तेजी से कम हो रहा है। ऐसे अनेक आर्थिक सूचकांक हैं जो पहाड़ी राज्य के रुप में उत्तराखंड की निरर्थकता की गवाही देंगे पर इनमें से एक भी सवाल राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में दर्ज नही है। 
इस चुनाव ने साबित कर दिया है कि पहाड़ में लोग अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं और ग्रामप्रधान से लेकर विधायक,सांसद तक परंपरागत राजनीति उनकीे चिंताओं को संबोधित नहीं कर पा रही है। विधायक निधि,सांसद निधि और विकास कार्यों में व्याप्त भ्रष्टाचार ने गांव से लेकर राजधानी तक एक परजीवी राजनीतिक तंत्र को स्थापित कर दिया है। दो हजार करोड़ रु0 के भ्रष्टाचार के कारोबार से तोंदियल हो रहे राजनीतिक तंत्र से बेलगाम भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के इलाज की उम्मीद नहीं की जा सकती। समूचा पहाड़ भीतर ही भीतर खदबदा रहा है। एक ज्वालामुखी बाहर आने का रास्ता और बहाना खोज रहा है। वक्त कभी भी किसी मामूली घटना को उत्तराखंड आंदोलन की सुूनामी में बदल सकता है। डर बस इतना है कि इस सीमाई राज्य के इतिहास को भी कहीं खून के दरिया से होकर न गुजरना पड़े।
                                                                     
                                                                       (इंडिया टुडे से साभार)

1 टिप्पणी:

  1. भाजपा ने कहा खंडूरी जरूरी हैं लेकिन ये नहीं बताया क्यों जरूरी हैं. पूर्व में लगभग ढाई वर्ष इस प्रदेश पर राज करने के उपरांत उनकी प्रमुख उपलब्धि क्या है? पहाड़ की अवधारणा पर बने इस राज्य के लिए उन्होंने ऐसा क्या किया कि वो जरूरी हैं? क्या उन दो वर्षों में पहाड़ पर विकास हुआ? क्या बेरोजगार युवा का पलायन कम हुआ ? सड़कें बनी, बिजली आई, अस्पतालों में डॉक्टर आये? और मुख्य मुद्दा जिसे उन्होंने अपने दुसरे कार्यकाल में भोंपू लेकर प्रचारित किया, भ्रष्टाचार क्या वो कम हुआ ? क्या सचिवालय या अन्य विभागों के बाबुओं ने बिना सुविधा शुल्क लिए फाईलें सरकानी आरंभ कर दी? इन सवालों के जवाब न में ही हैं. अब बात करें दुसरे कार्यकाल की. जिस लोकायुक्त का धिंडोरा खंडूरी और अन्ना टीम कर रही है उस लोकपाल बिल से मुख्यमंत्री तो क्या किसी विधायक के विरुद्ध भी कार्यवाही नहीं हो सकती. यकीं नहीं आता तो www.cm.uk.gov.in से लोकायुक्त बिल पढ़ लें. पेज ५ पर लोकायुक्त गठन हेतु कमेटी की चर्चा है तो पेज २१ के चैप्टर VI में इन माननीयों पर कार्यवाही का procedure .इस लोकायुक्त के आने की आहट ने बाबुओं की कार्यशैली को कतई प्रभावित नहीं किया है. सचिवालय में आज भी व्यक्तिगत तो दूर सरकारी फाइल भी बिना वजन रखे नहीं सरकती. यंहा तक की विभागों को अपना बजट अवमुक्त करने के लिए एडियाँ रगडनी पड़ती हैं. जो पुराने घाघ हैं वो तो सिस्टम जानते हैं लेकिन जिन्हें जानकारी नहीं वो महीनो फाइल clear होने की आस में चक्कर काटते रहते हैं. जब खंडूरी अपनी नाक के नीचे स्थित सचिवालय तक को नहीं सुधार सकते तो इस प्रदेश के लिए वो क्यों जरूरी हैं क्या भाजपा के दिल्ली में बैठे क्षत्रप बताएँगे ? प्रदेश के लिए खंडूरी जरूरी हैं और पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की सुख समृधि के लिए अजय सेतिया. क्या महिला और बाल विकास के लिए उत्तराखंड में योग्य व्यक्तिओं का अकाल पद गया था जो पंजाब से बंदा आयात किया गया और फिर कहते हैं खंडूरी जरूरी है.

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