जनपक्ष टुडे का सम्पादकीय
ढ़ाई हजार करोड़ रु0 के धंधे का महाभारत
राज्य में विधायकी के लिए उमड़ रही यह भीड़ अचरज में नहीं डालती। क्योंकि राज्य का साधारण से साधारण आदमी भी जानता है कि प्रदेश में राजनीति जनसेवा का माध्यम नहीं रहा बल्कि अब यह मेवा हड़पने और गड़पने का उद्योग बन चुका है। उत्तराखंड में राजनीति सबसे बड़ा कारोबार है जिसमें हर साल हजारों करोड़ रुपए का वारा न्यारा होता है। राजनीति के इस कारोबार में हर साल लगभग दो सौ करोड़ रु0 की सांसद और विधयक निधि बंटती है। ऐसा माना जाता है कि इसका 40 प्रतिशत राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं में बंट जाता है। राजनीतिक परजीवियों के पालन पोषण में इन दोनों निधियों का अहम योगदान है। कहा जा सकता है कि हर साल जनता के हिस्से का 80 करोड़ रु0 राजनीति के ध्ंाधे में लगे लोगों की जेब में चला जाता है। एक अनुमान के अनुसार विकास योजनाओं का लगभग 400 करोड़ रु0 भी इसी तबके के हिस्से में जाता है। यदि सरकारी जमीन बांटने, लैंड यूज चेंज करने, विभिन्न सरकारी आपूर्तियों, खनन,जड़ी बूटी,शराब कारोबार, केंद्र सरकार की योजनाओं, परियोजनाओं और उद्योगों के जरिये आने वाली धनराशि को भी जोड़ दिया जाय तो राज्य में राजनीतिक उद्योग का कुल टर्न ओवर 2000 करोड़ रु0 से लेकर 2500 करोड़ रु0 तक है। बाजार में और धंधे भी हैं जिनमें राजनीति से ज्यादा पैसा है लेकिन उनमें राजनीति जैसा आकर्षण नहीं है। राजनीति में चुनाव जीतना भले ही कठिन हो पर पैसा कमाना कठिन नहीं है। राज्य में मंत्री और विधायकों रहे महानुभावों की संपत्ति के ब्यौरे बता देते हैं कि पांच साल के भीतर ही जो रंक थे वे करोड़पति हो गए। वह भी तब जब ऐसे लोगों की आय का कोई साधन भी न हो। प्रदेश में राजनीति ईजी मनी कमाने का सबसे बड़ा जरिया मान लिया गया। एक बार विधानसभा पहुंचने का मतलब धन और ऐश्वर्य की गंगा में जिंदगी भर डुबकी लगाने का जुगाड़! पर इस धंधे में सिर्फ पैसा ही नहीं है बल्कि पावर भी है। सत्ता की पावर और 2500 करोड़ रु0 दोनों मिलकर इसे सबसे बड़ा दांव बना देते हैं। इस नजरिये से देखें तो चुनावी महाकुंभ के लिए नेताओं की भीड़ का उमड़ना चोंकाता नहीं हैै।
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