कांग्रेस और भाजपा को लाभ पहंुचाने
की साजिश है आयोग का फरमान
राजेन टोडरिया
Images of Uttrakhand Assembly Election 2012: Test of legs. Chief Minister B.C. Khanduri had to travel a distance of 9 km due to heavy snowfall between Kotdwar and Pauri |
आज ही रात को भाजपा के बागी नेता और जनसंघ के जमाने से अरएसएस का झंडा-डंडा ढ़ो रहे मोहन सिंह रावत गांववासी से बात हुई। गांववासी श्रीनगर से चुनाव लड़ना चाहते थे।लेकिन भगत दा ने वहां से अपने राजनीतिक शिष्य और गढ़वाल जिले में उनकी सोशल इंजीनियरी की विरासत को आगे बढ़ाने वाले धन सिंह रावत को टिकट दे दिया। गांववासी बगावत के मूड में थे और चुनाव मैदान में भी उतरना चाहते थे। लेकिन मौसम और चुनाव आयोग उनके सामने खलनायक की तरह खड़े हो गए। इसी तरह प्रतापनगर से यशवंत बिष्ट चुनाव लड़ना चाहते थे। वह पूर्व विधायक स्व0 फूलसिंह बिष्ट के बेटे हैं। संयोग से न गांववासी और न फूल सिंह बिष्ट राजनीति से कुछ कमा पाए। इसलिए गांववासी और यशवंत बिष्ट दोनों के पास चुनाव लड़ने के लिए सीमित संसाधन हैं। चुनाव आयोग के तानाशाही फरमान ने इन दोनों के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है। प्रतापनगर में भी अधिकांश गांवों तक पहंचने के मोटर मार्ग और पैदल रास्ते बंद हैं। इसी तरह खिर्सू से लेकर थलीसैण तक श्रीनगर विधानसभा में बहुत बड़ा हिस्सा बर्फ के कारण कटा हुआ हैं। बर्फ ऐसी है कि अगले दो सप्ताह में ही साफ हो पाएगी। पिछले साठ सालों में यह सबसे बड़ा हिमपात है। गांववासी चुनाव लड़ने का इरादा छोड़ चुके हैं और यशवंत भी लगभग इसी ओर हैं। इसका सबसे बड़ा कारण चुनाव आयोग का फरमान है। क्या यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव है? जो चुनाव प्रत्याशियों को मतदाता तक पहंुचने का मौका नहीं दे रहा हो, जो चुनाव मतदाताओं को प्रत्याशियों और दलों की रीति-नीति जानने का मौका नहीं दे रहा हो उसे स्वतंत्र और निष्पक्ष कैसे कहा जा सकता है? यही नहीं बीते सोमवार को मुख्यमंत्राी बीसी खंडूड़ी बर्फ के कारण नौ किमी पैदल चले और उसके बाद उन्हे एक जीप की छत पर सफर करना पड़ा तो मसूरी से कांग्रेस के प्रत्याषी मनमोहन मल्ल को मसूरी से नई टिहरी पहुचने में छठी का दूध याद आ गया।
चुनाव आयोग अगली 16 जनवरी तक प्रत्याशियों को चुनाव चिहन बांटेगा। 16 जनवरी से 27 जनवरी की शाम चार बजे तक प्रत्याशियों के पास मात्र 12 दिन हैं। क्या पहाड़ में सामान्य रुप से भी एक निर्वाचन क्षेत्र को 12 दिन में कवर किया जा सकता है? लेकिन प्रचार के लिए उपलब्ध समय के नजरिये से देखें तो वास्तविक समय उससे भी कहीं कम है। चुनाव निशान बांटे जाने के बाद हर प्रत्याशी के पास चुनाव प्रचार के लिए मात्र 124 घंटे होंगे। यानी सामान्य चुनाव प्रचार की दृष्टि से मात्र नौ दिन। नौ दिन में क्या पहाड़ के एक निर्वाचन क्षेत्र में घूमा जा सकता है। क्या एक प्रत्याशी अपने दल या अपना चुनाव चिहन नौ दिन की अवधि में अपने निर्वाचन क्षेत्र के हर पोलिंग स्टेशन के मतदाताओं के पास पहुख्चा सकता है। यह असंभव है। ऐसा पागलपन भरा बयान सिर्फ चुनाव आयोग ही दे सकता है। केवल 25 जनवरी से 30 जनवरी के बीच पिछले 40 सालों में हुए हिमपात के आधार पर इस साल के मौसम के बारे में अनुमान लगाना मूर्खतापूर्ण है। मौसम अपने अतीत की प्रवृत्तियों या प्रोबेबेलिटी के गणितीय नियम से बंधी हुई परिघटना नहीं है। उसके बारे में अनुमान लगाया जा सकता है पर मौसम इतना शरारती और फितरती है कि वह मौसम वैज्ञानिकों को मूर्ख बनाता रहता है। यूं भी कहा जा सकता है कि उसे मौसम विज्ञानियों को मूर्ख और अज्ञानी साबित करने में मजा आता है। ऐसे अविश्वसनीय चरित्र वाले मौसम पर चुनाव आयोग का विश्वास चकित करता है। लेकिन यदि आप इसे बारीकी से देखें तो यह एक राजनीति है। चुनाव आयोग के इस निर्णय से मात्र दो राष्ट्रीय दलों को लाभ हुआ है। कांग्रेस और भाजपा ही दो ऐसे दल हैं जिन्हे अपना सिंबल मतदाताओं तक नहीं पहंुचाने की जरुरत नहीं है। पहाड़ के सभी इलाकों में कांग्रेस और भाजपा के चुनाव चिहन को लोग पहचानते हैं।लेकिन बाकी दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों को अपना सिंबल आम मतदाता तक पहंुचाना है। यह सिर्फ 124 घंटे में करना असंभव है। पवह भी तब जब पहाड़ में पिछले साठ सालों में सबसे कड़ाके की ठंड पड़ रही है और हिमपात से पहाड़ के ऊपरी इलाकों को जाने वाले रास्ते बंद हैं। इससे कांग्रेस और भाजपा के बागियों के लिए लोगों तक पहुचना मुश्किल होगा। जिसका सीधा लाभ बीजेपी और कांग्रेस को होना निश्चित है। इसी प्रकार यूकेडी के दोनो धड़ों, परिवर्तन पार्टी समेत बाकी छोटे दलों के लिए भी यही समस्या बनी रहेगी।
इसका सीधा अथ्र यही है कि चुनाव आयोग ने कांग्रेस और भाजपा को लाभ पहुचाने के लिए यह कार्यक्रम घोषित किया है। यह शर्मनाक राजनीति है। इससे जनता का भरोसा चुनाव आयोग से उठा है।उस पर कांग्रेस का पक्ष लेने के आरोप लग रहे है। पर यह भी कम खेद का विषय नहीं है कि जो क्षेत्रीय दल अक्सर पहाड़ की बात करते ह और जिन्हे इससे सबसे ज्यादा नुकसान होना हैैं उन्होने इस पहाड़ विरोधी फरमान को चपरासियों की तरह मंजूर कर लिया।
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