पालीहाउस की संतानें
राजेन टोडरिया
तेज रफ्तार गाड़ी चलाते अमीरजादे फुटपाथ पर सोते लोगों के ऊपर गाड़ी चढ़ा देते हैं, कभी कोई कार किसी थ्री ह्वीलर वाले को रौंद देती है। कभी किसी लड़की को कोई नवधनिक लड़के मौज मस्ती के लिए अगवा कर लेते हैं। सत्ता और दौलत के मद में चूर अमीर संतानों के कारनामें सुर्खियां बनते रहते हैं। मध्यवर्ग के लड़के मोटर साइकिलों में सवार होकर हवा से बातें करना चाहते हैं। वे जान हथेली पर रखकर अक्सर सड़कों पर स्टंट करते नजर आ जाते हैं। कभी खुद की जिंदगी से खेलते हैं तो कभी उन भले लोगों की जिंदगी से जो उन्हे बचाने के चक्कर में खुद दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं। नए साल के जश्न में देश के सभ्य मानेजाने वाले शहरों में लड़कियों के साथ हुए सलूक ने बताया कि विलासिता और संपन्नता शहरों के भीतर दो पाए जानवरों का एक जंगल विकसित करने लगी हैं। यह ऐसा पाशविक अभयारण्य है जिसके भीतर मानव जीवन के प्रति एक तरह की अपराधिक असम्मान व बेपरवाही है। दौलत,सत्ता और सुविधायें मिलकर मदांधता की जो काॅकटेल तैयार करते हैं उसके नतीजे सड़कों से लेकर नाइट क्लबों तक फैले हैं। अमीर मां-बाप ही नहीं मध्यवर्गीय मां-बापों का एक हिस्सा भी अपने अमर्यादित लाड़ प्यार से एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने में लगा है जो कायदे-कानूनों से लेकर मानव जीवन के मूल्य तक सबको ठेंगे पर रखने पर आमादा है।
देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली ऐसी घटनायें बरबस ही अब्राहम लिंकन की याद दिला देती हैं।जी हां! वही लिंकन जो बेहद कठिन जीवन जीते रहे। अमरीकी राष्ट्रपति बनने से पहले 39 बार असफल हुए। इन्ही लिंकन ने राष्ट्रªपति बनने के बाद अपने बेटे के टीचर को एक लंबा काव्यमय पत्र लिखा था।यह पत्र इतिहास के सबसे अद्भुत और बहुमूल्य घरोहरों में से एक है। अपने बेटे को लेकर एक पिता की चिंेताओं के नजरिये से देखें तो यह एक अद्वितीय पत्र है। यह पत्र रोशनी का एक पुंज है जो भविष्य में हर पिता के लिए एक प्रकाश स्तंभ की तरह काम करता रहेगा। यह पत्र हमारी भावी पीढ़ियों के लिए भी रोशनी का दरवाजा खोलता है। लिंकन अपने बेटे के टीचर को कहते हैं,‘‘ मेरे बेटे को सिखाना/मेहनत से कमाया एक रुपया/ मुफ्त में कमाए पांच रुपए से मूल्यवान है/उसे बताना कि पराजित कैसे हुआ जाता है/और जीतने का आंनद क्या होता है/उसे सिखाना कि आंसू बहाना/ कोई शर्म की बात नहीं’’ यह एक लंबी कविता है जिसका अंत इसप्रकार से होता है,‘‘ उसके साथ कोमलता का व्यवहार करना/पर अधिक दुलारना भी मत!’’ यह एक 19 वीं सदी का पिता है जो अपने बेटे को भविष्य की उन धूप और छांव,ठंडी और गर्म हवाओं के लिए तैयार कर रहा है जिनसे होकर हर बेटे को गुजरना होता है। जिनसे गुजरे बगैर कोई आदमी मुकम्मल नहीं होता। कमाल है कि 19 वीं सदी का पिता जीवन को आज के पिताओं से कहीं ज्यादा बेहतर ढ़ंग से समझता था जबकि आज के पिता के पास अपने समय को समझने और भविष्य को जानने के लिए कहीं बेहतर जानकारियां और साधन हैं। आज के बेटे के लिए जीवन कहीं ज्यादा जटिल और मायावी है बनिस्बत 19 वीं सदी के युवा के लिए। तब न समाज जटिल था और न मानवीय रिश्तों में इतनी रहस्यमयता थी। पता नहीं कि लिंकन का बेटा वैसा बना कि नहीं जैसा वह बनाना चाह रहे थे क्योंकि उनके बेटे के बारे में इतिहास की किताबें चुप है।
हो सकता है कि लिंकन का बेटा इतना साधारण जीवन जिया हो कि इतिहास को उसकी सुध लेने की जरुरत भी महसूस न हुई हो। अक्सर ऐसा ही होता है। महान पिताओं की छायायें इतनी विराट होती हैं कि उसमें उनके बेटे दिखाई भी नहीं देते। या यूं कहें कि वे अपनी पिता की छाया भी नजर नहीं आते। कोई जानता भी नहीं कि महात्मा गांधी के बेटों के नाम क्या थे? कौन जानता है कि जाॅर्ज वाशिंगटन, लेनिन, माओ, मार्टिन लूथर किंग, मार्शल टीटो समेत 19-और बीसवीं सदी के महापुरुषों की संतानें कौन थीं? जिन लोगों ने नेहरू को देखा है वे जानते हैं कि बांग्लादेश की उपलब्धि के बावजूद इंदिरा गांधी के पास नेहरू जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व नहीं था। सिनेमा,साहित्य की हस्तियों से लेकर राजनेताओं तक महान लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है पर इन महान पिताओं की संतानों के बारे में जानने के लिए शायद शोधार्थियों की जरुरत पड़ेगी।
ऐसा क्यों होता है कि बड़े पिताओं की संतानें अनुकूल माहौल और बेहतर लाॅंचिंग पैड उपलब्ध होने के बावजूद अपने पिता की सफलताओं को दोहरा नहीं पातीं। वे कामयाबी के उन शिखरों के पास भी नहीं फटक पातीं जो उनके पिता या मां ने छुए थे। दुनिया की कामयाबियों के अधिकांश महाकाव्य अभावों की काली रातों में ही रचे गए हैं। संघर्ष की भट्ठियों में ही अधिकांश प्रतिभायें निखरी हैं। यह इतिहास की बार-बार दोहराई जाने वाली सच्चाई है कि दुनिया के सबसे बड़े, बेहतरीन और समय की धारा बदल देने वाले सपने मानव इतिहास के सबसे काले दौर में ही देखे गए। इतिहास को देखें तो यह साफ-साफ नजर आता है कि 18 वीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी के सातवें दशक तक विश्व इतिहास के सबसे चमकीले नायकों का दौर रहा है। कला, संस्कृति, साहित्य, सिनेमा से लेकर राजनीति तक जीवन के हर क्षेत्र में इन दो सदियों ने महान नायकों के करिश्मे को मंत्रमुग्ध होकर देखा है। यह ऐसा दौर था जब समूची दुनिया एक वैचारिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी। आजादी के आंदोलनों से लेकर लोकतंत्र के आंदोलनों तक पूरी धरती एक प्रसव पीड़ा से गुजर रही थी। दो-दो विश्वयुद्धों का काला दौर और निर्मम तानाशाहों के अत्याचारों का समय भी इन्ही सदियों के बीच मौजूद था। मानव जाति को इसी दौर मे कई-कई बार अग्निपरीक्षाओं से गुजरना पड़ा। यह मात्र संयोग नहीं है कि कम्युनिज्म से लेकर लोकतंत्र तक सारी विचारधाराओं के महान विचारक इसी दौर की उपज रहे हैं। विश्व साहित्य,संगीत,गीत, कला, सिनेमा, दर्शन, की महान कृतियां इसी घटाटोप अंधेरे वाले समय में रची गई हैं। यह सच्चाई है कि विश्व इतिहास के अधिकांश नायक, पैगंबर चमकदार समयों की उपज नहीं हैं । भगवान राम से लेकर ईसा मसीह और मोहम्मद साहब तक हर नायक को नायकत्व हासिल करने के लिए संघर्ष की भट्ठियों में से होकर गुजरना पड़ा है। जो असंख्य लोग इन भट्ठियों में गलकर नष्ट हो गए वे इतिहास की नजरों से ओझल हो गए। इसीलिए इतिहास में उनका नामोनिशान तक नहीं मिलता।
महान लोगों में से कुछ या तो गांधीजी की तरह होते हैं जो अपने बेटे-बेटियों पर अपना जीवनमूल्य और जीवन शैली थोपना चाहते हैं। लेकिन एक सेलेब्रिटी की संतानें अपने पिता की तरह असाधारण रुप से साधारण नहीं हो पाती। उन्हे भी पिता का प्रभामंडल लुभाता है। जब उन्हे सेलिब्रिटी स्टेटस नहीं मिल पाता तो वे देवदास गांधी की तरह बागी हो जाती हैं। दूसरे प्रकार के महान पिताओं में अपनी संतानों के प्रति उसी तरह का बेहद कोमल कोना होता है जिस तरह आम मध्यवर्गीय पिताओं में होता है। चूंकि ये सारे लोग बेहद अभावों और संघर्ष भरे दौर से आए होते हैं इसलिए वह समय दुस्वप्न की तरह जिंदगी भर उनका पीछा करता रहता है। दिलचस्प बात यह है कि जिन संघर्षों ने इन लोगों मंें लड़ने और जीतने का जज्बा और आत्मविश्वास पैदा किया ये लोग उन्ही संघर्षों और अभावों से अपनी संतानों को दूर रखना चाहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि उन अभावों और असुविधाओं के बीच रहना कितना मुश्किल और तकलीफदेह होता है। इसलिए मध्यवर्ग से लेकर सेलेब्रिटी या नवधनिक वर्ग तक कोई नहीं चाहता कि उनकी संतानों को उसी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़े जिनसे होकर उन्हे गुजरना पड़ा था।ये सारे साधारण और असाधारण लोग अपनी संतानों की हसरतें पूरा करना चाहते हैं। उनकी जिदों पर निहाल हो जाते हैं। बच्चों के प्रति अतिरिक्त उदारता और कोमलता मिलकर उनकी संतानों के लिए एक कंफर्ट जोन का निर्माण करती है। रही सही कसर चापलूसों की वह भीड़ पूरी कर देतीे हैं जो सेलेब्रिटीज के इर्दगिर्द लगी रहती है। इससे उनकी संतानें सामान्य रुप से बड़ी होने के बजाय नकचढ़ी हो जाती हैं। यह बीमारी कोई सेलेब्रिटी या बड़े लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि उन मध्यवर्गीय परिवारों में भी है जो गरीबी की खाईयों को लांघकर कामयाबी तक पहुंचे हैं। अबोध बच्चे के खिलौनों से शुरु होने वाली यह कोमलता जब मोटर साइकिल,महंगी गाड़ी या कीमती सामानों तक पहुंच कर जब जवान होती है तो एक मनोवैज्ञानिक समस्या बन जाती है।
दरअसल अभावों और संघर्षों की चिलचिलाती घूप से आए मां-बाप अपनी संतानों को उस धूप और वर्षा से बचाना चाहते हैं जो उन्हे झेलनी पड़ी। इसलिए वे अपनी संतानों के ऊपर अपनी सुविधाओं और साधनों का पाॅलीहाउस तान देते हैं। पाॅलीहाउस में रहने वाली इन संतानों को मालुम ही नहीं हो पाता कि असल जिंदगी कितनी कठिन है। ये पाॅलीहाउस जिस कृत्रिम वातावरण का निर्माण करते हैं उससे उनकी संतानों की धूप और वर्षा से लड़ने की क्षमता ही खत्म नहीं होती बल्कि खराब मौसम और हालात से जूझने की इच्छा भी खत्म हो जाती है। वे उन नाजुक पौधों की तरह होते हैं जो थोड़ी सी धूप में ही कुम्हला जाते हैं या छोटी सी आंधी में ही गिर जाते हैं।जबकि अपने बल पर धूप और वर्षा का मुकाबला किए बगैर जिंदगी को नहीं जाना जा सकता। भारतीय मनीषी ये बात जानते थे। भारतीय जीवन पद्धति को देखें तो इसमें ब्रह्मचर्य के दौरान बच्चों को गुरुकुल का कठिन जीवन गुजारना होता था। तत्कालीन राजाओं को भी अपने पुत्र को शिक्षा के लिए गुरुकुल ळी भेजना होता था। तब के राजा गुरू वशिष्ठ या विश्वामित्र को राजमहल में बुलाकर अपने बच्चों के लिए ट्यूशन का इंतजाम नहीं करते थे। गुरुकुल भी आज के जमाने के हाॅस्टल नहीं थे। वहां आम आदमी की तरह एक कठोर जिंदगी बितानी होती थी। अभाव जिंदगी की जरुरी पाठशालायें हैं। अभाव में रहकर आप जिंदगी को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। जब आपके पास कुछ न हो तब आप अपने जीवन का मूल्य भी समझते हैं और अपने जैसे मामूली लोगों के जीवन का मूल्य भी जान पाते हैं। अभाव आपको अहंकार में रहने की आजादी नहीं देते बल्कि वे आपको विनम्र होने के लिए बाध्य करते हैं। अभावों को जीते बगैर कोई भी आदमी मुकम्मल नहीं हो सकता। अभाव कम से कम साधनों के बल पर जिंदा रहना सिखाते हैं। वे आदमी को बुरे से बुरे वक्त के लिए शाररिक और मानसिक रुप से तैयार करते हैं। इससे आपके भीतर का आत्मविश्वास जगता है कि आप किसी भी परिस्थिति में जिंदा रह सकते हैं। किसी भी परिस्थिति में जिंदा रहने की शाररिक और मानसिक मजबूती ही विजयी होने की बुनियादी शर्त है। इसीलिए लिंकन चाहते हैं कि उनका बेटा पराजय का अर्थ भी जाने और जीत के आनंद को भी। उनके एक महान शिक्षक होने के अर्थ इन्ही चंद लफ्जों में हैं।
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