अमर उजाला की पत्रकारिता या मैदानी एजेंडा
एस0राजेन टोडरिया

अखबार यह क्यों नहीं बताता कि पिछले दस सालों में देहरादून,हरिद्वार और रूद्रपुर,काशीपुर समेत मैदानी शहरों में जो शहरीकरण हुआ है उसके कारण कितनी पक्षी प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। फिर क्यों नहीं शहरीकरण के खिलाफ अभियान चलाया जाता? क्यों नहीं कृषि भूमि को आवासीय भूमि में बदलने का विरोध किया जाता ? अखबार क्यों नही अनावश्यक रुप से बनाए जा रहे बड़े बंगलों के खिलाफ अभियान चलाता? सिर्फ इसलिए नहीं कि इससे बिल्डर्स प्रभावित होंगे?अमर उजाला यूपी में प्रदूषण पैदा करने वाले कोयला बिजलीघरों, गंगा प्रदूषित करने वाले उद्योगों,शहरी आबादी के खिलाफ अभियान चलाता? अमर उजाला को राज्य की जनता को यह भी बताना चाहिए कि पिछले दस सालों में उसे जो विज्ञापन मिले हैं उससे कितने स्कूल बन सकते थे,कितने गरीब मरीजों को दवा मिल सकती थी, कितने आपदा पीड़ितों के घर बन सकते थे। यह विचित्र है कि आप विकास के फल तो खाना चाहते हैं, ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक और जन संसाधनों का उपयोग अपने हित में करना चाहते हैं पर जब उसकी कीमत चुकाने की बात आती है तो आप पल्ला झााड़कर अलग खड़े हो जाते हैं। पनबिजली से जो नुकसान पर्यावरण को हो रहा है उसके लिए हर वो आदमी,संस्थान दोषी है जो 70 यूनिट प्रतिमाह से ज्यादा बिजली का इस्तेमाल कर रहा है। बड़े संस्थान सबसे ज्यादा दोषी हैं क्योंकि वे निजी मुनाफाखोरी के लिए संसाधनों का दुरुपयोग कर रहे हैं। केवल शोर न मचायें। अखबार के पन्ने पर बैठकर जजमेंट देना आसान है लेकिन विकल्प तलाशना मुश्किल रास्ता है। पनबिजली पर फतवा देने से पहले बतायें कि बिजली के बिना समाज और उद्योगों की गतिविधियां कैसे चलेंगी,यदि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर नहीं चलेगा तो उत्पादन कैसे होगा? दवाईयां कैसे बनेंगी? रोजगार कैसे मिलेगा? उत्तराखंड की अर्थव्यस्था कैसे चलेगी? लोगों के सामने सच्चाई रखें कि राज्य का कर राजस्व किन-किन साधनों से आ रहा है ? राज्य अपना राजस्व शराब से जुआए या पनबिजली से यह फैसला राज्य के लोगों पर छोड़ दें। केवल वे ही तथ्य न बतायें जो आपके एजेंडे को सूट करते । अमर उजाला अपना फैसला न सुनाये बल्कि तथ्य बताए कि राज्य की गाड़ी चलाने के लिए क्या साधन हैं? केवल सवाल उठाने से कुछ नहीं होगा बल्कि वैकल्पिक अर्थव्यस्था का माॅडल पेश करें और उस पर जनमत संग्रह कराने को तैयार रहें। आखिर यह जनता ही तय करेगी कि उसे टीवी,फ्रिज, वाशिंग मशीन की आधुनिक जीवन शैली को छोड़कर पेड़ की छाल के वस्त्र पहनने और आदिम जीवन शैली अपनाने वाले समय की ओर लौटना है या नहीं। सभ्यतायें ऐसे वाहन हैं जिनमें कोई रिवर्स गेयर नहीं होता लेकिन वे आदमी अपनी बुद्धिमत्ता की सीमाओं के भीतर प्रकृति को होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय करती रहती हैं। लेकिन यदि आबादी बढ़ती रहेगी तो प्राकृतिक संसाधनों पर उसका दबाव बढ़ता रहेगा और उसके दुष्परिणाम होते रहेंगे। इन्हे केवल वैाानिक आविष्कारों से सीमित किया जा सकता है।
बेहतर होगा कि अखबार राज्य सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों का दस प्रतिशत हिस्सा राज्य के विकास और पपर्यावरण संवर्द्धन में खर्च करे। कारपोरेट रिस्पांसबिलिटी नैतिकता के तहत यह जरुरी है।अमर उजाला के दोनो संस्करण उत्तराखंड से लगभग 20 से 25 करोड़ रुपए सालाना कमाते हैं। उन्हे भी कम से कम एक -दो करोड़ रु0 तो राज्य के लोगों पर खर्च करने ही चाहिए।
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