कांग्रेस और भाजपा
दोनों को
जनादेश का
कर
कांग्रेस के
पास सत्ता
में वापसी
का मौका
जनरल की
हार से
सदमें में
भाजपा
राजेन टोडरिया
बहुत कम बार
ऐसा होता
है कि
सरकार बनाने
वाली और
प्रतिपक्ष में बैठने वाली दोनों
ही पार्टियां
के लिए
चुनाव नतीजे
हतप्रभ करने
वाले रहे
हों
लेकिन उत्तराखंड में ठीक यही
हुआ हैं
इन चुनाव
नतीजों ने
कांग्रेस और
भाजपा दोनों
को जोर
का झटका
दिया है।यूकेडी
और रक्षा
मोर्चा जैसे
क्षेत्रीय दलों और बसपा को
भी मतदाताओं
ने जबरदस्त
झटका दिया
है। आसानी
से 36 सीटें
हासिल करने
की उम्मीद
में बैठी
कांग्रेस को
मतदाताओं ने
32 सीट देकर
अधर में
लटका दिया।‘‘खंडूड़ी जरुरी
है’’ नारे
पर सवार
होकर 31 सीटें
हासिल करने
वाली भाजपा
को सबसे
बड़ा आघात
कोटद्वार में
लगा जहां
उसके पोस्टर
ब्वाॅय जनरल
बीसी खंडूडी
ही चुनाव
नहीं हारे
बल्कि उसके
पांच कैबिनेट
मंत्री चुनाव
हार गए।
यह चुनाव
इसलिए भी
याद किया
जाएगास कि
इसमें साठ
प्रतिशत से
ज्यादा सीटों
पर प्रत्याशियों
को एक-एक वोट
के लिए
संघर्ष करना
पड़ा और
चुनाव नतीजे
आखिर तक
अनिश्चितता की गंगा में गोते
लगाते रहे।
पर यह
भी उल्लेखनीय
है कि
उसके पिटारे
में दोनों
दलों क
ेपास संतोष
के लिए
कुछ न
कुछ जरुर
है।कांग्रेस सबसे बड़ा दल होकर
उभरी है
और जाहिर
है कि
सरकार बनाने
के लिए
उसे ही
आमंत्रित किया
जाएगा। इसलिए
उसके पास
निर्दलीयों और बसपा से समर्थन
का जुगाड़
करने का
मौका मिलेगा।निशंक
राज में
जिस भाजपा
के दहाई
के अंक
में न
पहुचने की
भविष्यवाणियां की जा रही थीं वह बीजेपी संतोष
कर सकती
है कि
31 सीटें लेकर
उसने कांग्रेस
न केवल
पानी पिलाया
बल्कि मात्र
एक सीट
के फासले
से वह
सरकार बनाने
से चूक
गई।
उत्तराखंड की तीसरे
विधानसभा चुनाव
अभूतपूर्व रोमांचक रहे है। एक
दिनी क्रिकेट
मैचों जैसे
रोमांच से
भरपूर इस
चुनाव में
आखिरी पांच
सीटों के
चुनाव नतीजे
आने तक
भी यह
अनुमान लगाना
मुश्किल था
कि कौन
सी पार्टी
सरकार बनाने
जा रही
है। कांग्रेस
और भाजपा
के बीच
सीट संख्या
टाई हो
जाने से
हालात बने
रहे। जाहिर
है कि
दोनों दलों
के बीच
जब इतना
करीबी संघर्ष
रहा हो
तब कहा
जा सकता
है कि
दोनों दलों
के पक्ष
में कोई
लहर काम
नहीं कर
रही थी।
दोनों ही
दलों के
प्रत्याशी किसी अखिल प्रादेशिक मुद्दे
के कारण
नहीं बल्कि
स्थानीय स्तर
पर पैदा
हुए मुद्दों
के चलते
जीते। भाजपा
ने आखिरी
वक्त में
सेनापति बदलकर
जनरल बीसी
खंडूड़ी को
कमान संभालने
का जो
प्रयोग किया
उसने भाजपा
को न
केवल एक
अपमानजनक हार
से बचाया
बल्कि इससे
वह सत्ता
के बिल्कुल
करीब पहंुुच
भी गई।
जनरल खंडूड़ी
को इस
बात का
श्रेय दिया
जाना चाहिए
कि उन्होने
कांग्रेस के
जबड़े से
सुनिश्चित जीत को खींच कर
भाजपा को
सरकार बनाने
के करीब
पहुचा दिया
था। यदि
वह जातिवाद
ओर भितरघात
के कारण
परास्त नहीं
हुए होते
तो भाजपा
और कांग्रेस
के बीच
सीट संख्या
टाई हो
जाती। चुनाव
नतीजों के
विश्लेषण से
यह स्पष्ट
है कि
आम लोगों
में भाजपा
के खिलाफ
जबरदस्त नाराजी
और गुस्सा
था। बीजेपी
के सात
में से
पांच कैबिनेट
मंत्रियों को हराकर मतदाताओं ने
इसे बता
भी दिया।
राज्य के
पहाड़ी क्षेत्रों
में भाजपा
को झटका
लगा है।
चमोली,टिहरी,
पौड़ी और
देहरादून जिलों
में उसे
पराजय का
सामना करना
पड़ा है।
भाजपा सरकार
ने पहाड़ों
की जिस
तरह से
उपेक्षा की
उससे उसे
गढ़वाल मंडल
के पहाड़
में आठ
और कुमाऊॅ
मंडल के
पहाड़ी जिलों
में आधा
दर्जन सीटें
उसे खोनी
पड़ी। दरअसल
भाजपा की
लाज बचाने
में ऊधम
सिंह नगर
और हरिद्वार
जिलों ने
सबसे बड़ी
भूमिका निभाई
है। इन
दोनों जिलों
में उसे
एक दर्जन
सीटें मिली
हैं जबकि
पिछली बार
उसके पास
चार सीटें
ही थीं।
आठ सीटों
के इस
लाभ ने
उसे 23 सीटों
से 31 सीटों
तक पहंुचा
दिया। दिलचस्प
बात यह
है कि
बसपा के
सिमट जाने
का जो
लाभ कांग्रेस
को होना
था उसे
भाजपा ले
उड़ी। चुनाव
नतीजे बसपा
के लिए
बेहद निराशाजनक
रहे है।
ये नतीजे
उसके दलित
और मुस्लिम
वोट बैंक
में आ
रही दरारों
की चेतावनी
दे रहे
हैं। बसपा
तीन सीटों
पर सिमट
चुकी है
पर कांग्रेस
को स्पष्ट
बहुमत न
मिलने के
कारण वह
महत्वपूर्ण हो गई है। इस
चुनाव में
मतदाताओं ने
क्षेत्रीय दलों की जमकर दुर्गति
की है।
पिछले चुनाव
में तीन
सीट जीतने
वाली यूकेडी
ने सत्ता
का आनंद
तो खूब
उठाया पर
जैसे ही
वह दो
धड़ों में
बंटकर जनता
की अदालत
में गई
तो मतदाताओं
ने दोनो
धड़ों को
जबरदस्त सबक
सिखा दिया।एक
कैबिनेट मंत्री
समेत उसके
तीनो सीटिंग
विधायक चुनाव
हार गए।
उसके सबसे
बड़े नेता
व तीन
बार के
पूर्व विधायक
रहे काशी
सिंह ऐरी
को भी
लोगों ने
पिथौरागढ़ जिले
के धारचूला
में धूल
चटा दी।
यूकेडी पी
के लिए
बस यही
संतोष रहेगा
कि यमुनोत्री
से उसका
एक नामलेवा
विधायक विधानसभा
में पहंुच
गया है।
कांग्रेस में
कैबिनेट मंत्री
और भाजपा
के सांसद
रहे पूर्व
ले0जनरल
टीपीएस रावत
का गरुर
भी मतदाताओं
ने तोड़
दिया है।
रावत ने
भाजपा से
अलग होकर
उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के नाम
से ऐन
चुनाव से
पहले एक
क्षेत्रीय दल लाॅंच किया था।
इस दल
ने कुछ
भाजपा के
बागियों को
मैदान में
उतार कर
जोरदार हंुकार
और फुंकार
भरी थी।
लेकिन टीपीएस
रावत समेत
सभी बागी
चुनावी कुरुक्षेत्र
में खेत
रहे। मतदाताओं
ने क्षेत्रीय
दलों को
बता दिया
कि वे
अवसरवादी क्षेत्रीयता
के झांसे
में आने
को तैयार
नहीं हैं।
जबकि इन्ही
मतदाताओं ने
कांग्रेस के
तीन बागियों
को जिताकर
यह भी
बताया कि
सही प्रत्याशी
मिलने पर
वे कांग्रेस
और भाजपा
को रिजेक्ट
भी कर
सकते हैं।
बीसी खंडूड़ी की
हार को
इस चुनाव
की सबसे
बड़ी विडंबना
के रुप
में याद
रखा जाएगा।
पूरे प्रदेश
में अपनी
छवि और
साख के
बूते भाजपा
की नैया
पार लगाने
वाले जनरल
कोटद्वार के
भाबर में
गोता खा
गए।दरअसलयह पराजय खंडूड़ी ने खुद
ही आमंत्रित
की। उनके
सलाहकारों का यह फैसला राजनीतिक
बचकानेपन का
सबसे बड़ा
सबूत है।
कोटद्वार सीट
सन्1935 से
ही ठाकुर
सीट रही
है। इसमें
एक बार
ही
ब्राह्मण प्रत्याशी जीता
और वह
भी छठे
दशक में
जब कांग्रेस
का दबदबा
हुआ करता
था। इस
सीट के
77 साल के
इतिहास को
नजरअंदाज करने
का खामियाजा
अंततः जनरल
को भुगतना
पड़ा। यह
गलती इतनी
बड़ी है
कि इसने
भाजपा सत्ता
से भी
दूर कर
दिया। बत्तीस
सीटों के
साथ कांग्रेस
नबर वन
है पर
उसे भी
कम से
कम तीन
विधायक चाहिए।
हालांकि उसके
तीन बागी
जीतकर आए
हैं पर
वे भी
बिना पुरस्कार
के कांग्रेस
को हाथ
रखने कास
मौका शायद
ही देंगे।
कांग्रेस के
पास विकल्प
सीमित हैं।
उसे या
तो इन
तीन बागियों
को अपने
पाले में
लाना है
या फिर
बसपा से
एकमुश्त समर्थन
हासिल करना
है। यदि
यह मुमकिन
हो तो
बसपा को
विभाजित कर
अपने पाले
में मिला
लेना है।
इसके लिए
उसे घोड़ामंडियों
के उस्ताद
सौदागरों के
कौशल की
जरुरत पड़ेगी।
उम्मीद है
कि कांग्रेस
के पास
ऐसी प्रतिभायें
मौजूद होंगी।
सबसे बड़ा
दल होने
कारण कांग्रेस
को यह
मौका मिल
जाएगा जिससे
इकतीस सीटों
वाली भाजपा
को यह
कौशल दिखाने
का मौका
शायद न
मिल सके।
कोटद्वार के
मतदाताओं ने
यह मौका
उससे छीन
लिया है।
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