गुरुवार, 3 जनवरी 2013

Furious Harak Singh Rawat burst in Cabinet Meeting


                           
                                               
                     कैबिनेट की बैठक में हरक का हंगामा
               
                 मुख्यमंत्री और कोटिया पर जमकर बरसे कृषिमंत्री

एस0राजेन टोडरिया
उत्तराखंड मंत्रिमंडल की बैठक आज अभूतपूर्व हंगामें की गवाह बन गई। कृषिमंत्री हरक सिंह रावत ने आज जमकर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की क्लास ली और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव दिलीप कुमार कोटिया को लगातार एक्सटेंशन देने को लेकर कैबिनेट की बैठक की अध्यक्षता कर रहे मुख्यमंत्री पर ही हल्ला बोल दिया। सूत्रों के अनुसार हरक सिंह रावत इस बात से बेहद नाराज थे कि दिलीप कुमार कोटिया उनका फोन उठाना तक गवारा नहीं करते थे। कई दिनों तक कोटिया की इस हिमाकत को बरदाश्त कर रहे हरक सिंह का गुस्सा कैबिनेट की बैठक में फट पड़ा। दरअसल मुख्यमंत्री के पुत्र साकेत बहुगुणा की किचन कैबिनेट के अहम सदस्य दिलीप कोटिया कई मुख्यमंत्रियों के मुंहलगे नौकर रहे हैं। कोटिया के बारे में आम तौर पर यह प्रमुख शिकायत रही है कि वह अपने सरकारी फोन कभी नहीं उठाते। कोटिया के बारे में यह कभी कहा जाता है कि वह उत्तराखंड पर राज कर रही उस अहंकारी ब्यूरोक्रैट क्लब के मेंबर है जो    उत्तराखंड के मंत्रियों और विधायकों को अपने मातहत मानती है। यह चैकड़ी इक्का दुक्का विधायकों को छोड़कर विधायकों और मंत्रियों के फोन उठाना अपनी तौहीन मानती है। इस चैकड़ी में लगभग सभी नौकरशाह प्रमुख सचिव स्तर के तो हैं ही साथ ये सभी कभी न कभी किसी न किसी मुख्यमंत्री के मंुहलगे रहे हैं।


लेकिन मंत्रियों  और विधायकों को अपने ठेंगे पर रखने वाले कोटिया इस बार बुरे फंसे। हरक सिंह रावत उनको लेकर पहले मुख्यमंत्री पर इतने बरसे कि सारे मंत्री सन्न रह गए। हरक सिंह के इस रुप को देखकर सारी कैबिलनेट को सांप सूंघ गया। पुरी बैठक में सन्नाटा छा गया। किसी को समझ में नहीं आया कि कैसे हरक सिंह रावत के मुंह से निकल रहे धारा प्रवाह वचनों को रोके। मुख्यमंत्री पर अपना सारा गुस्सा उतार देने के बाद हरक सिंह रावत ने दिलीप कुमार कोटिया पर हल्ला बोल दिया। कोटिया के लिए जितने संसदीय और असंसदीय बिशेषण लगाए गए उससे मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव के पुरखे भी हक्के बक्के हो गए होंगे। पहली बार किसी सीनियर ब्यूरोक्रेट की कैबिनेट की बैठक में इतनी दुर्गति ही नहीं हुई बल्कि अपमानजनक हालात भी ण्ेलने पड़े। हरक सिंह रावत के इस हमले की गूंज आज दिन भर सचिवालय के गलियारों में गूंजती रही। हर दफ्तर में हरक सिंह चर्चा का विषय बने रहे। मंत्रिमंडल की बैठक के मछली बाजार में बदल जाने की इस घटना को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म रहा। सचिवालय में बैठे नौकरशाहों में हरक सिंह रावत का खौफ साफ-साफ देखा जा सकता था। साफ लग रहा था कि कोटिया पर हमला कर हरक सिंह रावत अब नौकरशाही के भीतर एक समांतर सत्ता केंद्र के रुप में उभर रहे हैं। कोटिया प्रकरण के जरिये हरक सिंह रावत ने यह संदेश भी दे दिया कि यदि किसी अफसर ने उनकी उपेक्षा करने की जुर्रत तो उसकी खैर नही।
गौरतलब है कि इससे पहले कृषिमंत्री हरक सिंह रावत अपने मातहत प्रमुख सचिव कृषि ओम प्रकाश की भी क्लास ले चुके हैं। ओम प्रकाश को सचिवालय के सबसे टेढ़े नौकरशाह के रुप में माना जाता है। वह भी मंत्रियों को ठेंगे पर रखने के कायल नौकरशाहों में माने जाते हैं। बताया जाता है कि कृषिमंत्री के एक आदेश को इन साहब ने अनदेखा कर दिया। जब मंत्री ने उन पर अपना आदेश पालन करने का दबाव बनाया तो ओमप्रकाश ने प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली जाने की धमकी दे डाली। बस फिर क्या था। हरक सिंह रावत ने ओमप्रकाश की इस कदर दुर्गति की  िकवह बस सर-सर ही कहते रह गए। फोन पर दूसरी ओर से जो धारप्रवाह अमृत वचनों की बाढ़ शुरु हुई फिर रुकी ही नहीं। अभी ओमप्रकाश पर फूटे हरक सिंह रावत के गुस्से की चर्चा थमी भी नहीं थी कि आज कोटिया हरकसिंह की सुनामी के चक्रवात में फंस गए।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012



          सरकार की शह पर बिछ गई हैं दो करोड़ रु0 के लिए गोटियां
              ओपन विवि पर अब छपाई घोटाले की छाया
राजेन टोडरिया
ऐसा लगता है कि उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय और भ्रष्टाचार का साथ चोली दामन जैसा हो गया है। विश्वविद्यालय अभी पूर्व कुलपति डा0 पाठक के कार्यकाल के दौरान लगे घपलों और वित्तीय अनियमितताओं के आरोप से अभी उबर भी नहीं पाया था कि अब विवि के कार्यवाहक कुलपति ने दो करोड़ रुपये के प्रकाशन का टेंडर मंगाकर सनसनी फैला दी है। तमाम कायदे -कानूनों को धता बताकर मंगाए इस टेडर में देहरादून से लेकर हल्द्वानी तक कई बड़े लोग शामिल बताए जा रहे हैं। यह पहली बार है जब कार्यवाहक कुलपति ने स्थायी कुलपति की नियुक्ति का इंतजार किए बगैर ही यह टेंडर निकाल दिया है। उधर उ त्तराखंड जनमंच ने ऐलान किया है कि यदि टेंडर में किसी बाहरी राज्य के निवासी की फर्म या कंपनी को विवि द्वारा इमपैनलमेंट किया गया तो कार्यवाहक कुलपति को उत्तराखंड में नहीं रहने दिया जाएगा। जनमंच के कार्यकारी अध्यक्ष शशिभूषण भट्ट ने चेतावनी दी है कि पहाड़ के लोगों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले प्रो0 शुक्ला पहले ही संगठन की काली सूची में दर्ज है। यदि विवि में बाहरी फर्मों और कंपनियों को किस्ी भी प्रकार का बिजनेस दिया गया तो विवि प्रशासन को सीधा विरोध झेलना होगा।
डा0 विनय पाठक के कुलपति काल में ओपन विवि पहाड़ विरोधी क्षेत्रवाद का हेडक्वार्टर बना दिया गया था। पहाड़ के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार देने के बजाय यह विवि उन्हे लूटने के केंद्र में बदल गया था। यही नहीं इस विवि में उस समय करोड़ों रुपये के घपले और घोटाले हुए। इन घपलों और घोटालों की फाइलें आज भी राजभवन में जांच की इंतजार में पड़ी हुई हैं। बताया जाता है कि राजभवन में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी इन फाइलों को अपनी आलमारी में बंद किए बैठा है। यह भी आरोप लगाया जाता रहा है कि इसी अफसर ने ओपन विवि के पूर्व कुलपति को बर्खास्त होने से बचाने में बड़ी भूमिका निभाई। राजभवन के गलियारों में यह भी चर्चा है कि पूर्व कुलपति को राज्यपाल के कोप से बचाने के लिए बड़ी डील हुई हैं जिसमें राजभवन से लेकर सचिवालय तक कुछ ताकतवर अफसर शामिल हैं। बताया जाता है कि ओपन विवि का कुल घपला करोड़ों में है। इसमें राज्य सरकार के बड़े अफसर और कुछ नेता भी शामिल हैं। करोड़ों के इस घोटाले की आंच एक पूर्व सरकार के एक मंत्री के साथ-साथ वर्तमान सरकार के एक मंत्री की भी मिलीभगत रही है। दिलचस्प बात यह है कि कुलपति की विदाई के बावजूद विवि में व्याप्त भ्रष्टाचार पर जांच शुरु नहीं हो पाई है। राजभवन और सरकार दोनों ही इस जांच पर चुप हैं। 
लेकिन भ्रष्टाचार का यह सिलसिला रोके नहीं रुक रहा।अब इस मैदान में उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी के कार्यवाहक कुलपति प्रो. शुक्ला भी कूद गए हैं। इन सज्जन ने कार्यभार संभालते ही अनेक विवादों को जन्म दे दिया है। पहले इनके क्षेत्रवादी टिप्पणी से पूरे राज्य में हंगामा मचा रहा पर सरकार की शह प्राप्त होने के कारण इनके खिलाफ अभी तक पहाड़ी कौम को अपमानित करने वाली टिप्पणी वाले मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई है। जबकि इस अिप्पणी से जुड़े सबूत मुख्यमंत्री,प्रमुख सचिव उच्च शिक्षा को भेज दिए गए थे।  लेकिन अब यह सज्जन पैसे के खेल में भी लिप्त होते नजर आ रहे हैं। अब 21 दिसंबर को वरिष्ठ प्राध्यापकों को उनके इशारे पर कार्य न कर पाने पर बोरिया बिस्तर बांध कर जाने को कह दिया है। वि0वि0 के गिरते शिक्षा स्तर से दुखी होकर कृषि विद्या शाखा के प्रो0 वी0के0कौल ने इस बात को स्पष्ट करते हुए अपना इस्तीफा 22 दिसंबर को ही दे दिया है। वहीं दूसरी तरफ प्रो0 शुक्ला ने दो करोड़ के पुस्तकों की छपाई के लिए निविदाऐं मांगी है जो 27 दिसंबर को कुलसचिव की गैर हाजिरी में खोली जानी है जबकि प्रो0 शुक्ला के पास वि0वि0 के कुलपति का अस्थाई कार्यभार है तथा वित्तीय एवं नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। पुस्तकों की छपाई में अनियमितता की जाँच शासन द्वारा पहले से ही की जा रही है जिसमें प्रो0 विनय कुमार पाठक, पूर्व कुलपति तथा श्री डी0के0सिंह, उपकुलसचिव अनियमितता के लिए आरोपित है। गत वर्ष भी छपाई का लगभग 70 प्रतिशत कार्य कोटा के प्रकाशक से ही कराया गया था। राज्यपाल और मुख्यमंत्री को की गई शिकायतों में उक्त अधिकारियों के ऊपर कमीशनखोरी का आरोप लगाया गया है। इस साल भी छपाई का ठेका कोटा के ही प्रेस को दिए जाने के लिए ही टेंडर का खेल कराया गया है। इस ठेके को अंजाम तक पहुचाने और सरकार से हरी झंडी दिखाने के लिए पूर्व कुलपति ने राज्य की एक कैबिनेट मंत्री का संरक्षण हासिल कर लिया है। हाल ही में वह एक सप्ताह तक जिस होटल में डेरा डाले हुए रहे वह इसी काबीना मंत्री का बताया जाता है। इस खेल में मीडिया के कुछ लोग भी शामिल हैं । मीडिया से जुड़े लोगों के इसमें शामिल होने से दो करोड़ रुपये के छपाई टेंडर के बारे में एक भी खबर किसी अखबार में नहीं छपी जबकि कार्यवाहक कुलपति को नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं है। यदि सरकार ने या राजभवन से उन्हे यह अधिकार दिया गया तब तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। संदेह तब हुआ जब हरिद्वार से आये एक ठेकेदार को उपकुलसचिव ने निविदा में हिस्सा लेने से ही मना कर दिया। बताते चले की टेण्डर के लिए दिये गये विवरण/अर्हताऐं तथा नियम व शर्तें जानबूझकर ऐसी बनाई गई हैं कि उत्तराखंड में छपाई का काम करने वाली फर्में और कंपनियां इसमें हिस्सा नहीं ले सके। उ त्तराखंड विरोध्ी मानसिकता के कारण ही मुक्त विवि का लगभग सभी कार्य राज्य से बाहर कराए जाते रहे हैं। कार्यवाहक कुलपति भी उ त्तराखंड विरोध के उसी रास्ते पर चल पड़े है। सूत्रों का कहना है कि बाहरी कंपनियों व फर्मों से भारी कमीशनखोरी करने के लिए ही ओपन विवि के कार्य बाहरी राज्यों के निवासियों से कराए जाते है।। हालांकि इस टेण्डर को इंपैनलमेंट का नाम दिया गया है किंतु इस टेंडर में कमीशनखोरी करने के दावेदार चाहते हैं कि टेण्डर में कम से कम लोग हिस्सा लें।यहीं नहीं अपनी गोटियां बिछाने के लिए आनन-फानन में सहायक कुलसचिव (क्रय) को दिनांक 24 दिसंबर को अन्य विभाग में स्थानांतरित कर क्रय का कार्य-भार छीन लिया गया क्योंकि क्रय विभाग ने आपत्ति लगाते हुए कहा था कि  प्रो0 शुक्ला के कार्यकारी कुलपति होने के कारण वित्तीय एवं नीतिगत निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं हैं।क्रय विभाग ने यह भी आपत्ति लगाई थी कि दो करोड़ की निविदा के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया भी शासनादेश के अनुरूप नहीं है व दोषपूर्ण है। यहीं नहीं प्रो0 शुक्ला ने निविदा खोलने के लिए जिस समिति का गठन किया उसमें जिन डा0 सूर्यभान सिंह को क्रय अधिकारी बनाते हुए सम्मिलित किया गया है उन्हें क्रय नियमों का ज्ञान ही नहीं है। डा0 सूर्यभान सिंह की नियुक्ति प्रो0 पाठक की अनुकम्पा से ही हुई है और उन्हें निविदा खुलने के तीन दिन पूर्व ही क्रय अधिकारी का कार्यभार दिया गया। विवि पर हावी उत्तराखंड  विरोधी लाबी का आलम यह है कि क्रय करने के लिए कार्यवाहक कुलपति को एक भी उत्तराखंड मूल का अधिकारी नहीं मिला। सारे अफसर उत्तराखंड से बाहरी राज्य के एक क्षेत्र विशेष कें मूल निवासी और विचारधारा विशेष से जुड़े हैं। प्रश्न उठता है कि कार्यकारी कुलपति को ऐसे विषय पर बिना शासन की अनुमति के निर्णय लेने का अधिकार कैसे प्राप्त हो गया जो नीतिगत तो है ही और जो वि0वि0 के विद्यार्थियों के भविष्य पर भी लंबंे समय तक प्रभावी रहेगा।

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

Desperate Modi needs Pakistan to help him in Assembly Election


          मोदी का कमालः विदेश नीति पर लड़ेंगे विधानसभा चुनाव
एस0 राजेन टोडरिया
लगता है कि नरेंद्र मोदी इस बार खासे मतिभ्रम की स्थिति में हैं। इसका कारण यह है कि वो दोहरे प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ रहे हैं। एक मुख्यमंत्री के रुप में अपनी गद्दी बचाने के लिए और दूसरा प्रधानमंत्री के दावेदार के रुप में भाजपा के भीतर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए। यह मतिभ्रम उनके भाषणों में झलक रहा है। उन्हे लग रहा है कि वह विधानसभा का नहीं बल्कि लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। इसलिए उनके भाषणों का फोकस विदेशनीति है। वह भी खासतौर पर पाकिस्तान को लेकर। पाकिस्तान नरेंद्र मोदी का प्रिय देश है। वह पाकिस्तान के सहारे गुजरात में अपनी इज्जत बचाना चाहते हैं। यह कमाल मोदी ही कर सकते हैं। एक व्यक्ति जो दस साल तक एक राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो,चुनाव से पहले जिसके द्वारा बहाई गई विकास की गंगा की आरती रतन टाटा से लेकर अंबानी तक देश के सारे बड़े औद्योगिक घराने,भारतीय जनता पार्टी और भी कई जाने माने बड़े लोग उतारते रहे हों,उसी नेता को विधानसभा चुनाव में अचानक पाकिस्तान की जरुरत शिद्दत के साथ महसूस होने लगे।


होना तो यह चाहिए था कि नरेंद्र मोदी यदि ईमानदार राजनेता होते तो गुजरात की जनता के सामने जाते और दो टूक शब्दों में कहते कि आप लोगों ने मुझे दस साल गुजरात को बनाने के लिए दिए। इस राज्य और उसके लोगों की इन दस सालों में मैने जो सेवा की है वो आप सबके सामने है। यदि आप समझते हैं कि मैने गुजरात की उन्नति की है तो मुझे जनादेश दें। लेकिन नरेंद्र मोदी ने ऐसा नहीं किया। पहले उन्होने गुजरातियों को अहमद पटेल के नाम से एक मुसलमान के मुख्यमंत्री बन जाने का डर दिखाया। किसानों और आम लोगों की समस्याओं के चलते यह अस्त्र नहीं चला तो उन्होने आखिरकार पाकिस्तान को चुनाव मैदान में घसीट ही लिया। वह सर क्रीक को ले आए। सर क्रीक पर विवाद थमा तो पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक को निशाना बना लिया। मोदी क्या चाहते हैं? कि गुजरात के लोग पानी, खेती,गरीबी,बेरोजगारी और जनससमयाओं पर वोट देने के बजाय सियाचिन ग्लेशियर, सर क्रीक, दाऊद और चीन सागर के मुद्दों पर विधानसभा में वोट दें। आखिर दस साल बाद भी यदि कोई मुख्यमंत्री अपने कामों के नाम पर वोट नहीं मांगता बल्कि पाकिस्तान के विरुद्ध वोट मांगता है तो इसका मतलब क्या है?
इस देश में सबसे आसान काम यदि है तो वह है पाकिस्तान का विरोध। क्योंकि पाकिस्तान के समर्थन में कोई बोलने के लिए मैदान में नहीं आने वाला। पाकिस्तान का विरोध करने पर उंगली कटवाए बगैर भी देशभक्त बना जा सकता है। चुनाव में जो मोदी पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद फैलाते रहे है ंवही मोदी एनडीए के समय क्यों मौन साधे रहे।  वह भी तब जब संसद पर हमले के बाद जब भारत की सेना वाजपेयी के राज में सीमा पर पाकिस्तान पर हमले के आदेश के लिए आठ महीने इंतजार करती रही । यह एक युद्धनीति और कूटनीति का जाना माना सिद्धांत है कि सेना जब सीमा पर तैनात तो होती है तो तब युद्ध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। सेना शेर है,यदि एक बार निकल पड़ी तो फिर शिकार करके ही लौटेगी। लेकिन देशभक्ति और युद्धोन्माद के सबसे बड़ी राजनीतिक सौदागर माने जाने वाली भाजपा के राज में सेना आठ महीने तक सीमा पर तैनात होने के बावजूद बिना युद्ध लड़े अपना सा मुंह लेकर घर लौट आई। इससे क्या भारत की किरकिरी नहीं हुई। क्या यह कमजोर नेतृत्व की पहचान नहीं है? नरेंद्र मोदी के भीतर का मुस्लिम विरोधी, पाकिस्तान विरोधी और देशभक्त  हिंदू उस समय क्यों नहीं बोला?यह दरअसल राजनीतिक दोगलापन है। नरेंद्र मोदी को लगता है कि विकास के नाम पर वोट मांगेंगे तो उनके द्वारा किए गए विकास से जो लाभान्वित हुए हैं वही वोट देंगे। ये लोग इतने कम है कि उनके नोट से पार्टी तो चल सकती पर उनके वोट से चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए नरेंद्र मोदी को एक खलनायक की जरुरत है। पाकिस्तान से बेहतर खलनायक कौन हो सकता है। पाकिस्तान का विरोध करने पर विकास से जुड़े सवाल पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। लोगों की जिंदगियों से जुड़े असली सवालों के बजाय ऐसे भावुक प्रश्न पैदा हो जाते हैं जो चुनाव के बाद खुद ब खुद पृष्ठभूमि में चले जायेंगे।
कौन नहीं जानता कि गुजरात विधानसभा विदेशनीति और रक्षा नीति से जुड़े सवालों पर निर्णय नहीं कर सकती। लेकिन मोदी विधानसभा चुनाव की बहस विकास से हटाकर पाकिस्तान पर केंद्रित करना चाहते हैं। अभी तक विधानसभा चुनाव राज्य के मुद्दों पर लड़े जाते रहे हैं लेकिन मोदी इतने शातिर राजनेता हैं कि इसे विदेश नीति के मसले पर लड़ना चाहते हैं। क्यों? दरअसल इस चुनाव में अभी तक मुस्लिम मुद्दा नहीं बन पाए। मोदी बेचैन हैं कि मुस्लिम क्यों नहीं चुनावी चर्चा के केंद्र में आ रहे। एक बार मुस्लिम चुनावी बहस के केंद्र में आ जाये ंतो मोदी के लिए हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण आसान हो जाएगा। दस साल तक जो व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो उसे एक बार फिर सिंहासन पर बैठने के लिए मुस्लिमों और पाकिस्तान की मदद चाहिए।  हैरत की बात तो यह है कि नरेंद्र मोदी में इतना साहस भी नहीं है कि वह कह सकें कि उन्हे पाकिस्तान का अस्तित्व मंजूर नहीं है। वह यह भी नहीं कह रहे हैं कि यदि वह प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान को भारत में विलीन कर देंगे। वह यह भी नहीं कहते कि उनका लक्ष्य धारा 370 खत्म करना और संविधान के उन सारे प्रावधानों रद्द करना है जिनके तहत अल्पसंख्यकों विशेष संरक्षण मिला हुआ है। मोदी की राजनीति की यही सबसे बड़ी विडंबना है कि वह बेहतर जीवन का भरोसा बंधाने वाली सकारात्मक राजनीति पर कम वैमनस्यता की नकारात्मक राजनीति पर ज्यादा भरोसा करते है। लेकिन उनमें वह राजनीतिक साहस नहीं है जो बाल ठाकरे में था या जो राजनीतिक साहस राज ठाकरे में है। मोदी ईमानदारी से न तो पाकिस्तान से नफरत करते हैं और न ईमानदारी से कट्टर हिंदुत्व से प्यार करते हैं। वह उन्मादी हिंदू मध्यवर्ग के बीच योद्धा तो दिखना चाहते हैं लेकिन हिंदूवाद के योद्धा बनना नहीं चाहते।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

Himachal Elections: Beyond the Politics


                                        '‘सरकार की नहीं सरोकार की चिंता’’
एस0 राजेन टोडरिया
हिमाचल के लोग लोकतंत्र को रोटी की तरह सेंकने के कायल रहे हैं। जिन लोगों को रोटी सेंकने का अनुभव है वे जानते हैं कि तवे पर रोटी को उलटने पलटने से रोटियां जलती नहीं हैं। हर पांच साल में तवे पर रखी रोटी की तरह सरकार को भी उलट देना ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जिससे आप अहंकारी और लापरवाह शासकों को सबक सिखाते हैं। पांच साल बाद सरकार बदलने का लाभ यह है कि हर नेता जानता है कि वह जनता के लिए एकमात्र विकल्प नहीं है। यह राजनीतिक कवायद नेताओं और राजनीतिक दलों को स्वेच्छाचारी होने से रोकती है। राजनीति के मदमस्त हाथियों को वश में करने के लिए यह एक अच्छी लगाम है। 
‘सरकार की नहीं सरोकार की चिंता’’ हिमाचल में चुनाव नतीजे आने को हैं। चुनावी परिदृश्य पर मेरा यह लेख दैनिक हिमाचल दस्तक ने प्रकाशित किया है।




राजधानी शिमला में रातें लंबी, ठंडी हैं और राजनीति सहमी हुई सी है। वातावरण में एक रहस्यमय खामोशी है। कोई नहीं जानता कि हवा का रुख किधर होगा। राजनीति के पंडित भी भविष्यवाणी करने से कतरा रहे हैं। सारा रहस्य उस बेजान ईवीएम के पेट में छिपा है जो पुलिस के पहरे में है। चुनाव के नतीजों पर लिपटे इस कुहासे के बावजूद हर बार की तरह इंडियन काफी हाउस में सरकारें बन और बिगड़ रही होंगीं। हिमाचल विधानसभा चुनाव की खासियत रही है कि वहां मतदाता सत्ता का प्रसाद कांग्रेस और भाजपा के बीच बराबर-बराबर बांटने में यकीन रखते रहे हैं। लेकिन इस बार यह इतना स्पष्ट नहीं है। भाजपा की राज्य सरकार के खिलाफ जो सत्ता विरोधी रूझान था उसके जवाब में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने गैस सिलेंडर की सब्सिडी खत्म करने का जिन्न बाहर निकाल दिया। कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण को यदि बहुत मामूली ही तौर पर भी तीसरे मोर्चे ने प्रभावित किया होगा तब भी यह सेंधमारी आधा दर्जन सीटों पर चुनावी नतीजें उलट पुलट कर सकती है। कोहरा ज्यादा  घना है और ऐसे में बाजी किसी के भी हक में जा सकती है। अनिश्चितता के बावजूद चिंता इस बात की नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी बल्कि मूल चिंता यह है कि जो सरकार बनने जा रही है उसके सरोकार क्या होंगे?
 मतदान व्यवहार के नजरिये से हिमाचल एक रोचक राज्य है। हिमाचल में एक बड़ा मध्यवर्ग है और हर साल इसका आकार बढ़      रहा है। राजनीतिक रुप से देखें तो मध्यवर्ग चुनावी उलटफेर में उस्ताद होता है। आर्थिक रुप से संवेदनशील होने के कारण उसकी बेचैनियां इतनी ज्यादा होती हैं कि हर सरकार के हर बार सत्ता विरोधी रूझान के काफिले की अगुआई यही वर्ग करता है। हिमाचल में सत्ता परिवर्तन की जो राजनीतिक रस्म चली है वह मध्यवर्ग के उदय के बाद उसके असंतोषी स्वभाव के कारण ही है। जिन हिस्सों में मध्यवर्ग की आर्थिकी जितनी अस्थिर है वहां राजनीति भी उतनी ही परिवर्तनशील है। छोटे चुनाव क्षेत्र होने से हल्का सा सत्ता विरोधी रूझान भी चुनाव नतीजे बदल डालता है। हिमाचल में 15 से लेकर 22 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं जो हर बार विधायक बदल देने पर यकीन रखते हैं। इन सीटों के कारण हर पांच साल में सरकार बदल जाती है। इस बार चुनाव नतीजों को लेकर जो अनिश्चतता है उसे इस मायने में अभूतपूर्व कहा जा सकता है कि भाजपा सरकार के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी रूझान होते हुए भी कांग्रेस की जीत साफ-साफ हरफों में लिखी नहीं दिखाई दे रही है।हिमाचल की चुनावी इबारत को इतना धुंधला बनाने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी श्रेय के हकदार हैं।  उन्होने ऐन चुनाव के मौके पर एक निर्जीव और उपेक्षित गैस के सिलेंडर से कांग्रेस के लिए एक महाबली भस्मासुर तैयार करके साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री के तरकश में कांग्रेस को हैरान करने के लिए तीरों की कमी नहीं है। भाजपा के सत्ता विरोधी रूझान को संतुलित करने में गैस सब्सिडी खत्म करने के केंद्र के ऐलान का बहुत बड़ा योगदान रहा है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अकेला गैस सिलेंडर भाजपा के पांच साल के कारनामों के दाग धोने में कामयाब रहा है? चुनावी अनिश्चितता के इस समीकरण को तीसरे मोर्चे ने भी कुछ और जटिल बनाया है। हालांकि तीसरे मोर्चे का शोर शराबा भले ही बहुत रहा हो लेकिन उसकी चुनौती आधा दर्जन सीटों पर सिमटती नजर आ रही है। इसके बावजूद उसकी सेंधमारी से कांग्रेस और भाजपा दोनों को नुकसान होगा। 
हिमाचल के लोग लोकतंत्र को रोटी की तरह सेंकने के कायल रहे हैं। जिन लोगों को रोटी सेंकने का अनुभव है वे जानते हैं कि तवे पर रोटी को उलटने पलटने से रोटियां जलती नहीं हैं। हर पांच साल में तवे पर रखी रोटी की तरह सरकार को भी उलट देना ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जिससे आप अहंकारी और लापरवाह शासकों को सबक सिखाते हैं। पांच साल बाद सरकार बदलने का लाभ यह है कि हर नेता जानता है कि वह जनता के लिए एकमात्र विकल्प नहीं है। यह राजनीतिक कवायद नेताओं और राजनीतिक दलों को स्वेच्छाचारी होने से रोकती है। राजनीति के मदमस्त हाथियों को वश में करने के लिए यह एक अच्छी लगाम है। लेकिन सरकारों को उलटते-पलटते रहने की इन विशेषताओं के बावजूद पिछले पंद्रह साल से जिस तरह लोग कांग्रेस और भाजपा की सरकारें बदलते रहे हैं उसके कोई बहुूत अच्छे नतीजे नहीं आये हैं। लेकिन सरकारें बदलने के इस चुनावी खेल से गवर्नेंस की गुणवत्ता बेहतर नहीं हुई है। उल्टे उसकी क्वालिटी में गिरावट आई है। गवर्नेंस में गिरावट आने का सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है। सन् 2003 में भ्रष्टाचार के सवाल पर भाजपा सरकार को लोगों ने विदा कर दिया। सन् 2008 में इसी मुद्दे पर कांग्रेस सरकार बदल दी गई और सन् 2012 में भी भ्रष्टाचार ही भाजपा सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा बना रहा। यानी तीन चुनावों में जनादेश भ्रष्टाचार के खिलाफ था पर बावजूद हर आने वाली सरकार पिछली सरकार के भ्रष्टाचार को पीछे छोड़ने पर आमादा दिखी। जाहिर है कि चुनाव में हार जाने के डर से नेताओं ने भ्रष्टाचार करना नहीं छोड़ा उल्टे उन्होने मान लिया कि पांच साल तक भ्रष्टाचार करो और फिर पांच साल विपक्ष में बैठो। यह अद्भुत है कि जनता 15 साल से भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट देती रहे और भ्रष्टाचार विरोधी जनादेश पर सवार सरकार भ्रष्टाचार को और भी बढ़ा दे। हिमाचल में भ्रष्टाचार बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि राज्य के मामलों में कांग्रेस और भाजपा के आलाकमानों का दखल बढ़ा है। हिमाचल के बड़े कद के नेताओं को पृष्ठभूमि में खिसका कर खत्म करने की रणनीति दरअसल कांग्रेस और भाजपा के आलाकमान का ही राजनीतिक गणित है। यह दुर्भाग्य है कि आलाकमानों को राज्य में कमजोर नेता ही रास आ रहे हैं। हाल के सालों में आलाकमानों द्वारा राज्यों के प्रोजेक्टों से सीधे कमीशन वसूल करने प्रचलन बढ़ा है। इससे भ्रष्टाचार बढ़ा है और नेताओं की जवाबदेही राज्य की जनता के बजाय दिल्ली में बैठे पार्टी के नेताओं के प्रति बढ़ी है।
कौन सी सरकार बनेगी, यह इसलिए मायने नहीं रखता कि अब इन दोनों दलों के बीच सिर्फ झंडे के रंग का अंतर है। मूुल सवाल है कि क्या आने वाली सरकार उन समस्याओं को एड्रेस करेगी जिनसे हिमाचल की जनता दो चार है। 



मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

BJP leader Sushma Swaraj glorifies the main exploiters of Indian farmers


         सुषमा स्वराज का झूठ और थोक बाजार का सच
By Rajen Todariya
भाजपा की नेता सुषमा स्वराज गजब की नेता हैं। वे जब भी बोलने के लिए खड़ी होती हैं तो मेरे दिमाग में राजघाट पर ठुमके लगाती उनकी छवि और गांधीजी के मुंह से निकला,‘‘ हे राम!’’ एक साथ एक ही फ्रेम में सामने आ जाते हैं। वे सफेद झूठ को भी इतने आत्मविश्वास से बोल सकती हैं कि एकबारगी सुनने वाले को लगता है कि वो सच ही बोल रही हैं। वे भाषा और शब्दों के भीतर कातिल छुरियों को छुपाने की विद्या में नरेंद्र मोदी की तरह ही प्रवीण हैं। सुषमा स्वराज नहीं होती तो क्या होता? भाजपा का क्या होता यह तो नहीं पता पर यह अज्ञानी देश कभी नहीं जान पाता कि भारत के आढ़त बाजारों या थोक व्यापार में देश के सर्वाधिक संतपुरुष बैठे हुए हैं। 

लोकसभा में सुषमा स्वराज की अमर वाणी में बताया गया कि आढ़तियों और भारत के किसानों का सदियों का रिश्ता है। आढ़ती किसानों को सर्वाधिक अच्छी तरह से जानते हैं। जब किसान की बेटी की शादी के लिए पैसे नहीं होते तब कौन आगे आता है- आढ़ती! जब किसान बीमार पड़ता है तब उसके इलाज के लिए कौन पैसे देता है-आढ़ती! जब किसान को बुआई के लिए पैसे चाहिए होते हैं तब कौन उसे कर्ज देता है-आढ़ती! जब किसान फाका करता है तब उसे कौन पैसे देता है- आढ़ती! सुषमा स्वराज की मानें तो ढ़ेर सारे संवेदनशील लोगों, मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत आत्माओं,, सारे दयालु और कृपालु टाइप के सज्जनों, संतों और महात्माओं से एक साथ थोक में मिलने का एक ही पता है कि आप अपने शहर के आढ़त बाजार में जांय और वहां आपको शहर की लगभग सारी महान आत्मायें दकानों में विराजमान मिल जायेंगी। आप चाहें तो इन आढ़ती नाम के दुर्लाभ प्राणियों की चरणों की धूल लेकर भी आ सकते है। सुषमा स्वराज की तरह इससे आपका जीवन भी धन्य हो जाएगा। भारत के आढ़तियों को भी आज ही पता चला होगा कि उनके भीतर इतनी महान और दयालु आत्मायें वास कर रही हैं। लेकिन इस भाषण में एक बात और है जिस पर आपने गौर नहीं किया होगा। सुषमा स्वराज से किसी ने नहीं पूछा कि जब इस किसान के पास लड़की की शादी के पैसे नहीं,खाने के लिए,इलाज के लिए पैसे नहीं तब इसकी मेहनत के पैसे कौन उडा़ता है? ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि आढ़ती के पास बेटी की शादी या इलाज या खाने के लिए पैसे न हों। आखिर किसान के पास ही क्यों पैसे नहीं होते? जो उत्पादन करता है वो गरीब है जो उसका उत्पादन बेचता है वो साहूकार कैसे होता है? सुषमा स्वराज ने यह भी नहीं बताया कि आढ़तियों की अट्टालिकाओं के नीचे जो कंकाल दबे हैं वो किसके हैं? सुषमा स्वराज ने यह भारत की कृषि अर्थव्यवस्था का वह समीकरण नहीं बताया जिसके चलते आढ़ती मालामाल और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किरोड़ीमल गेंदामल और उसकी संतानें यदि भारत के किसान को कर्ज में ही डुबोती रही हंै और वे भारत के किसानों को आत्महत्या की ही सौगात दे सकी हैं तो एक बार क्यों नहीं अमेरिकी वालमार्ट को भी देख लिया जाय। यदि उससे लाभ नहीं हुआ तो उसे भी भगा देंगे। भारत की जनता को कौन रोक सकता है? जिन फटेहाल लोगों ने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को भगा दिया था वे वालमार्ट को क्यों नहीं भगा सकते? क्या सुषमा स्वराज को भारत की जनता की ताकत में यकीन नहीं है? सुषमा स्वराज जिन रक्त जोंकों और अंगुलीमालों को संत के रुप में पेश कर रही हैं वो सबसे बड़ा और बेशर्म झूठ है।समय की मांग यह है कि 21 वीं सदी के भारतीय उपभोक्ता और किसान पर जोंक की तरह चिपके किरोड़ीमल गेंदामल से छुटकारा चाहिए। वो वालमार्ट से मिले या किसी और रास्ते से। बत्तीस रुपए की चीज को 100 रुपये में बेचकर 68 प्रतिशत मुनाफाखोरी करने वाले बाजार का विनाश जरुरी है। इस मुनाफाखोर और मिलावटखोर अपराधिक बाजार को नष्ट कर उपभोक्ता और किसान को थोड़ा बहुत राहत देना वाला बाजार तो दिया जा सकता है। आढ़त बाजार भारत में लूट के सबसे बड़े अड्डे हैं। इन अड्डों को नेस्तनाबूद किया जाना चाहिए। यदि कोई विदेशी भी इस काम को कर सकता है तो उसका भी स्वागत है।
लोकसभा की कार्रवाई में दर्ज सुषमा स्वराज का यह भाषण यह जरुर साबित करता रहेगा कि भाजपा का अर्थ भारतीय जनता पार्टी नहीं है बल्कि इसका अर्थ बिचैलिया जन पार्टी है। भाजपा आज भी साठ के दशक के जनसंघ की उस नाभिनाल से जुड़ी हुई है जिसे पूरा देश बनियों की पार्टी के रुप में जानता था। इसीलिए मिलावट खोरी, अनुचित मूल्य,मुनाफाखोरी को रोकने के लिए बनाया गया आवश्यक वस्तुअधिनियम भाजपा ने ही खत्म कराया। ज्यादा से ज्यादा मध्यवर्ग को लालाओं के चंगुल में फंसाने के लिए ही भाजपा नीत एनडीए सरकार ने एपीएल बनाकर उन्हे सस्ते खाद्यान्न की सुविधा से वंचित करा दिया।

बुधवार, 28 नवंबर 2012

Zee News Caught red handed in an extortion case


   
                         घूसकांड पर इतना सन्नाटा क्यों है भाई!

एस0राजेन टोडरिया
अब वह समय गया जब पत्रकारिता को खबर छापने और दिखाने का पेशा माना जाता था। अब यह खबर न दिखाने ओर न छापने का पेशा है। यही पत्रकारिता का मुख्य धंधा है। इसी प्रचलित रास्ते पर चलते हुए जी न्यूज ने खबर न दिखाने के लिए सौ करोड़ की घूस मांगी। यदि सौ करोड़ रुपये की घूस का यह स्टिंग आपरेशन किसी नेता या अफसर का होता तो तय मानिये ये सारे न्यूज चैनलों की मेन हैड लाइन होती और सारे अखबारों की पहली हैंडिंग होती। न्यूज चैनल वाले इस पर प्राइम टाइम डिबेट कर रहे होते और देश के बड़े-बड़े नामी गिरामी  पत्रकार राजनीति में आई गिरावट पर इतना विलाप कर रहे होते कि टीवी स्टूडियोज के कालीन उनके आंसुओं से तरबतर हो गए होते। लेकिन ऐसा लगता है कि भले ही राजनीति में भ्रष्टाचार पर यह बंधुत्व और भातृभाव गायब हो लेकिन कारपोरेट मीडिया में भ्रष्टाचार पर अद्भुत एकता है। नायाब बंधुत्व है। इसीलिए पत्रकारिता के इस ऐतिहासिक घूस प्रकरण पर बीते दिन एक भी प्राइम टाइम डिबेट नहीं हुई। न्यूज चैनलों के दुलारे और नामी गिरामी पत्रकारों की बिरादरी में से एक भी इस घटना पर नहीं रोया। जी न्यूज से अपने विवाद के चलते केवल अमर उजाला ने ही इसे पहली हैंडिंग बनाया लेकिन बाकी अखबारों ने इस खबर को अनजान कोने में पटक दिया ताकि पाठक की नजर में भी न आ सके।मीडिया के भ्रष्टाचार को कालीन के नीचे सरका कर दबाने की यह बेशर्मी क्या बताती है? धूमिल के शब्दों में कहें तो कारपोरेट मीडिया अपराधियों का संयुक्त परिवार बन गया है।
Sudhir Chaudhary of Zee NEWS ARRESTED

सवाल यह है कि क्या मीडिया को यह अबाध और निर्बाध अधिकार होना चाहिए कि वह किसी खबर को कालीन के नीचे सरका दे और किसी खबर को अपने बैनर पर टांग दे। यदि कारपोरेट मीडिया ने अपनी पेशागत ईमानदारी छोड़ दी है तो उसे पाठकों और दर्शकों के सामने स्वीकार करना चाहिए कि वह भी उतना ही घटिया हो चुका है जितना कि सरकारी तंत्र। मीडिया का यह रवैया राजनेताओं के आचरण से भी ज्यादा बुरा है। क्योंकि कम से कम राजनीति में कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा और भाजपा के भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस तो दिखाई देती है। मीडिया के योद्धा जी न्यूज का पक्ष तो खूब दिखा रहे हैं लेकिन उनमें से एक भी न्यूज चैनल आम लोगों के बीच में जाकर इस घूसकांड के बारे में आम आदमी की राय लेने नहीं पहुंचा। क्योंकि सारे न्यूज चैनल जानते हैं कि यइि उन्होने इस बारे में आम लोगों की राय जानने की जहमत उठाई तो लोग उनकी कलई उतार देंगे। सच छापने और सच दिखाने का दावा करने वाला मीडिया अपने भीतर के भ्रष्टाचार पर चर्चा भी नहीं करना चाहता और उसमें जनता के बीच जाने का साहस भी नहीं है। यह कैसी ईमानदारी है। एक करोड़ रुपये के घपले पर जिस कारपोरेट मीडिया की छाती फट जाती है वह सौ करोड़ की घूस पर क्यों चुप हो गया? पत्रकारिता को खबर न दिखाने और न छापने का धंधा बनाए जाने पर क्यों नहीं प्राइम टाइम डिबेट के पत्रकार योद्धा हाथ में तलवार लेकर मीडिया के भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान कूदे। उनकी जुबानों पर क्यों जंग लग गया? क्यांे नहीं वे न्यूज चैनलों से कहते कि जब तक आप लोग पत्रकारिता में व्याप्त इस नए तरह के भ्रष्टाचार पर चर्चा नहीं कराते तब तक वे किसी डिबेट में भाग नहीं लेंगे। कारपोरेट मीडिया के इस भ्रष्टाचार पर चर्चा कराए बगैर इन प्राइम टाइम डिबिटियों को राजनीतिक या सरकारी भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करने का क्या नैतिक अधिकार है? अपने भीतर के भ्रष्टाचार को कालीन के नीचे सरकाने वाले न्यूज चैनलों और अखबारों को नेताओं के भ्रष्टाचार पर बोलने का क्या अधिकार है?
हर दिन किसी न किसी नेता के भ्रष्टाचार की जन्मपत्री बांचने वाले ईमानदारी की प्रतिमूर्ति अन्ना हजारे, वीरांगना किरण बेदी, भ्रष्टाचार विरोधी पंथ के मठाधीश अरविंद केजरीवाल, ईमानदारी के ध्वजवाहक शांतिभूषण और उनके परम ईमानदार पुत्र प्रशांत भूषण की बोलती कारपोरेट मीडिया के भ्रष्टाचार पर क्यों बंद है। बात-बात में पत्रकार सम्मेलन बुलाने वाले अरविंद केजरीवाल ने बीते दिन नही क्यों नहीं पत्रकार सम्मेलन बुलाकर इस घूसकांड का विरोध किया? क्या मीडिया का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार नहीं है? क्या वही भ्रष्टाचार विरोध के योग्य है जिससे आपको राजनीतिक लाभ हो? मीडिया के भ्रष्टाचार पर पूरे देश में राजनीतिक मौन है। इस सन्नाटे पर ‘‘शोले’’ में ए0क0े हंगल का वह अमर संवाद याद आता है,‘‘ इतना सन्नाटा क्यूं है भाई?’’  कोई बताएगा कि 100 करोड़ रुपये के घूस कांड पर इतना सन्नाटा क्यों है। क्यों सबको सांप सूंघ गया है? इस कांड पर क्यों नहीं अरविंद केजरीवाल, अन्ना हजारे, किरण बेदी समेत लोकपाल आंदोलन के पराक्रमी वीर सामने आकर मांग करते कि मीडिया को भी लोकपाल के तहत लाया जाना चाहिए? क्यों ये लोग मांग करते कि सीबीआई की तरह भारतीय प्रेस परिषद को भी मीडिया के भ्रष्टाचार की स्वतंत्र जांच करने और मुकदमा दर्ज करने का अधिकार मिलना चाहिए। क्यों नहीं देश के नेता और राजनीतिक दल मांग करते कि जब देश की हर संस्था के नियमन के लिए कानून और एजेंसियां हैं तो फिर मीडिया के लिए ही क्यों आत्म नियमन की व्यवस्था होनी चाहिए। सच तो यह है कि जी न्यूज के खिलाफ मामला दर्ज होने से सभी नेताओं के मन में लड्डू फूट रहे हैं। क्योंकि लगभग हर नेता और दल को पेड न्यूज का कोबरा डंस चुका है। लेकिन इनके पास इस नागराज के काटे का कोई मंत्र नहीं हैं। इसलिए इसी कोेबरे के विष से इसका इलाज हो रहा है तो नेता लोग भी प्रसन्न हैं। उन्हे पता चल गया है कि स्टिंग का इलाज भी स्टिंग में ही छुपा है। विदेश की बात होती तो अब तक जी न्यूज के मालिक भी पूरे कांड की जिम्मेदारी लेकर जी न्यूज के प्रबंधन से त्यागपत्र दे चुके होते। काॅल डिटेल से यह बात आईने की तरह साफ हो चुकी है कि इस बारे में जी न्यूज के दोनों संपादकों की जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा से बात हुई थी। यानी कि सुभाष चंद्रा द्वारा हरी झंडी दिए जाने के बाद ही ये दोनों संपादक सौ करोड़ रुपये की इस डील को फाइनल कराने के लिए जिंदल ग्रुप के अफसरों से मिले। वैसे भी यह नहीं हो सकता कि सौ करोड़ रुपये की डील हो और मालिक को खबर तक न हो। सुभाष चंद्रा इतने मासूम मालिक तो हो नहीं सकते। देर सवेर उन्हे भी गिरफ्तार होना ही है। यदि नहीं होंगे तो माना जाएगा कि कानून ने मीडिया के आगे घुटने टेक दिए। लेकिन भारत में भ्रष्टाचार पर शर्मिंदा होने की परंपरा नहीं है। इसलिए यहां का कारपोरेट मीडिया भी उतना ही बेशर्म है जितना कि यहां का राजनेता।
लेकिन इस सन्नाटे को टूटना चाहिए। बेहतर है कि देश में जो भी लोग लोकतंत्र के लिए चिंतित हैं वे इस सन्नाटे को तोड़ें। हमें यह मानना होगा कि राजनीतिक भ्रष्टाचार सबसे बड़ा खतरा नहीं है। बल्कि भ्रष्ट कारपोरेट मीडिया लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। नेताओं और सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार पर ईमानदार मीडिया अंकुश रख सकता है लेकिन भ्रष्ट मीडिया पर हजार ईमानदार नेता भी अंकुश नहीं लगा सकते। इस घूसकांड पर जो चुप्पी है वह साफ-साफ बता रही है कि मीडिया के डर से कोई नेता,सामाजिक कार्यकर्ता मीडिया के भ्रष्टाचार पर बोलने को तैयार नहीं है। यहां तक कि देश के सूचना और प्रसारण मंत्री भी इतने बड़े उगाही कांड पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। जबकि सबसे पहले उन्हे ही कहना चाहिए था कि मीडिया की गंदगी को दूर करने के लिए सरकार क्या मैकनेनिज्म तैयार करने जा रही है। यदि मीडिया अपनी साख बचाने के लिए चिंतित नहीं है तो केंद्र सरकार को मीडिया की साख बचाने के लिए जरुरी उपाय करने के प्रस्तावों के साथ आगे आना चाहिए। आखिर यह कांड मीडिया का व्यक्तिगत मसला नहीं है बल्कि यह इस देश की जनता की अभिव्यक्ति की आजादी का मसला है। सबको डर है कि यदि उन्होने इस पर मुंह खोला तो पूरा कारपोरेट मीडिया उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाएगा। यह मीडिया का ही आतंक है जिसके नीचे ऐसा जनविरोधी सन्नाटा फैला हुआ है। उत्तराखंड आंदोलन के कवि अतुल शर्मा के शब्दों में कहें,‘‘ ये सन्नाटा तोड़ के आ! सारे बंधन छोड़ के आ!!’’

रविवार, 25 नवंबर 2012

Media is a puppet of Corporates: Governor


    गवर्नर बोलेः पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली है मीडिया

आज उत्तराखंड में ण्क नए दैनिक जनवाणी की औपचारिक लाचिंग हो गई। सबसे ज्यादा तालियां राज्यपाल के 
भाषण ने बटोरी। हरीश रावत और अन्य वक्ताओं ने मीडिया का महिमा मंडन किया लेकिन राज्यपाल ने मीडिया की सच की परत दर परत खोल डाली। वह प्याज के छिलकों कीतरह मीडिया को नंगा करते रहे और हाल तालियों गड़गड़़ाता रहा। यह जनमत था जो तालियों के जरिये मीडिया के भीतर की कुरुप सच्चाई को दाद  दे रहा था। राज्यपाल का कहना था कि भारतीय मीडिया दरअसल पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली है। इसमें पत्रकार की आवाज की कोई जगह नहीं है। मेरे एक पत्रकार मित्र की टिपपणी थी कि पत्रकार को मालिकों ने टूल यानी औजार में बदल दिया है। औजार एक निष्प्राण ढ़ांचा होता हैं और उसकी अपनी कोई पक्षधरता नहीं होती। मीडिया के भीतर जो सबसे बड़ी और अद्भुत सर्जनात्मक शक्ति है वह उसमें काम करने वाले पत्रकार हैं। लेकिन अब मीडिया पत्रकारों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा वह मालिकों की कारपोरेट हितों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। यानी अखबार,न्यूज चैनल सब हिज मास्टर्स वाइस के रिकार्ड हैं जो घिसते-घिसते बसुरे हो चुके हैं।
Governor of Uttrakhand addressing a gathering on the occasion of launching of Hindi Daily " Janvaani" at Dehradun : IPhone photo by  Ravikant
उम्मीद है कि राज्यपाल भी अपने भाषण को राजभवन जाकर भूल जायेंगे। क्योंकि इतनी बेचैनियों के साथ वह राज्यपाल नहीं बने रह सकते। इसलिए इतिहास में तालियों की आवाज ही रिकार्ड हो सकेगी  लेकिन उसके संदर्भ शायद ही कभी याद रखे जायेंगे। हम भी इसे एक ऐसे अच्छे भाषण के रुप में याद रखेगे जो सच तो कहता है पर कुछ करता धरता नहीं है। उत्तराखंड में राज्यपाल के भाषण सरोकारों से लदे रहते हैं और गवर्नर की सरकार के मुखिया का पूरा कार्यकाल पूंजीपतियों और बड़े लोगों के हितों की चैकीदारी करने में गुजर जाता है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री एक ही सरकार की दो जुबाने हैं। आप सब लोग जानते हैं दो जीभें या सांप की होती हैं या फिर कलम की। इस राज्य की जनता इन्ही द्वि जिह्वा धारकों के बीच सहमी हुई सी फंसी हुई है। 
जनवाणी यदि उत्तराखंड की पत्रकारिता में आए ठहराव को तोड़ सकी तो कामयाब हो सकता है। सूचनाओं की पत्रकारिता को सरोकारों की पत्रकारिता में बदलना आसान काम तो नहीं है। फिर भी उम्मीद करने में क्या हर्ज है?